भारत मे श्रम नीति Labour Policy in India

जैसा कि आप सभी को पता है किस्वतन्त्रता प्राप्ति के संबंध में ऐसा महसूस हुआ कि श्रम—नीति कैसे होनी चाहिए इसमे कहा गया है कि ऐसी हो जो कर्म में विश्वास (आत्मनिर्भरता) पैदा कर सके। स्वतंत्रता—प्राप्ति के दस्तावेज और सन् 1954 तक जबकि श्री वी.वी. ग्राहिं श्रम—मंत्री थे। औरसभी सरकारी प्राख्यान (आधिकारिक घोषणाएं) प्राप्त करने के लिए धारणा बनाने लगे। इस विचार धारा को सरकार ने भी मिला दिया जिससे एक नया विचारधारा को बल मिला, जिसे ‘त्रिवृत्त’ कहा गया।

श्रम-नीति’ का नाम दिया गया। यह ‘त्रिपक्षीय’ नीति सन् 1954 तक केन्द्र—बिदु बन चुकी थी। इस सत्र के दौरान सरकार ने तीन लोगों द्वारा जुड़े प्रयासों को आधार बनाया और वे तीन हिस्सेदार थे—

 व्यवसाय संघ जो किकर्मकार का प्रतिनिधित्व करते थे, नियोजक तथा सरकार। इस प्रकार के प्रयास में प्रतिनिधि स्वयं तो कोई निर्णय नहीं मानते थे। जिसकाउनका कार्य परामर्श—सुझाव देने तक ही सीमित था। इन तीनों देशों में सरकार का कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। जैसेवार्षिक श्रम-सम्मेलनों और स्थायी श्रम-समितियों (स्थायी श्रम समितियों) ने इस प्रक्रिया में मुख्य भूमिका अदा की। सम्मेलनों में कर्मकार को दबंग बनाने, कर्मकार पहलवानों की शिक्षा, कर्मकार समिति और न्यूनतम कार्य जैसे राज्यों पर बल दिया गया। सन् 1958 के सोलहवें कार्य—सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया, जिसके तहत उद्योग में अनुशासन संहिता के प्रयोग को स्वीकार किया गया। इस संहिता में व्यवस्था की शुद्ध कि कोई भी पक्ष बिना सूचना दी गई हड़ताल तालाबन्दी न करें और एक पहलू कार्यवाही को त्याग कर सामूहिक रूप में ऐच्छिक विवाचन (स्वैच्छिक मध्यस्थता) द्वारा अपनी स्थिति का समाधान करें। यह भी व्यवस्था की गई कि अवपीड़न (Ceorcion) तथा खिंचाव (शिकार) जैसे फोटो का सहारा न लिया एवं अंशत: हड़ताल या तालाबन्दी को त्याग कर शिकायत—प्रक्रिया (शिकायत प्रक्रिया) को स्वीकारा जाए।

See Also  सिविल प्रक्रिया संहिता 141 से लेकर के 145 तक

त्रिपक्षीय नीति एक ऐसी प्रणाली है जो कार्य एवं कार्यों के बीच निहित धारणा की पहचान पर बल देती है। उत्पादन में और राष्ट्रीय अर्थ—व्यवस्था को बनाने में श्रम और कार्य दोनों एक दूसरे के स्वामित्व हैं। श्रम—नीति इस तथ्य को आगे देती है कि संपूर्ण समाज और व्यक्तिगत वृद्ध कर्मकार के कल्याण की सुरक्षा की देनदारी के अधीन हैं और उन्हें ध्यान में रखना होगा कि कर्मकार को आर्थिक लाभ के उचित अंश मिल रहे हैं या नहीं। इसी विचारधारा को ध्यान में रखने वाले बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 को संसद में पारित किया गया, जिसमें कर्म धारक को बोनस दिए जाने के संबंध में नियम बनाए गए हैं—

भारतीय श्रम—नीति के मुख्य विशेषताएँ प्रकार हैं—

(1) राज्य को परिवर्तन और कल्याणकारी कार्यक्रम के डाउनलोड के रूप में और समुदाय के अभिरक्षक के रूप में मान्यता देना।

(2) न्याय न दिए जाने की स्थिति में कर्म भंग के शान्तिपूर्ण ढंग से अपने विरोध को प्रकट करने के अधिकार को मान्यता देना।

(3) आपसी समझौता (आपसी समझौता), सामूहिक सौदेबाजी (सामूहिक सौदेबाजी) एवं ऐच्छिक विवाह (स्वैच्छिक मध्यस्थता) को प्रोत्साहन देना।

(4) कमजोर पक्ष को उचित उपचार की वजह से राज्य द्वारा हस्तक्षेप।

(5) औद्योगिक शांति को बनाए रखना को प्राथमिकता देना।

(6) नियोजक एवं योजना के बीच भागीदारी को बढ़ावा देना।

(7) उचित कार्य मानदण्डों एवं सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना।

(8) उत्पाद एवं जारी को बढ़ावा देना हेतु सहयोग देना।

(9) विधानों का प्रवर्तन।

(10) कर्म की स्थिति को ऊँचा उठाना।

Leave a Comment