जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 330 तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं
नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने में आसानी होगी।
धारा 331
इस धारा के अनुसार जांच या विचारण को पुन: चालू करने के बारे मे बताया गया है। इसके अनुसार —
(1) जब कभी जांच या विचारण को धारा 328 या धारा 329 के अधीन मुल्तवी किया जाता है तब उस स्थिति मे मजिस्ट्रेट या न्यायालय जांच या विचारण को संबद्ध व्यक्ति के विकृतचित्त न रहने पर किसी भी समय पुनः चालू कर सकता है और ऐसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने या लाए जाने की अपेक्षा कर सकता है।
(2) जब अभियुक्त धारा 330 के अधीन छोड़ दिया गया है। और उसकी हाजिरी के लिए प्रतिभ उसे उस अधिकारी के समक्ष पेश करते हैं, जिसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय ने इस निमित्त नियुक्त किया है। तब ऐसे अधिकारी का यह प्रमाणपत्र कि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है साक्ष्य में लिए जाने योग्य होगा।
धारा 332
इस धारा के अनुसार मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने पर प्रक्रिया को बताया गया है। इसके अनुसार —
(1) जब अभियुक्त उस स्थिति मे मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या पुनः लाया जाता है। तब यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय का यह विचार है कि वह अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है तो, जांच या विचारण आगे चलेगा।
(2) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय का यह विचार है कि अभियुक्त अभी अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय, यथास्थिति, धारा 328 या धारा 329 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा और यदि अभियुक्त विकृतचित्त और परिणामस्वरूप अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ पाया जाता है तो ऐसे अभियुक्त के बारे में वह धारा 330 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा।
धारा 333
इस धारा के अनुसार जब यह प्रतीत हो कि अभियुक्त स्वस्थ चित्त रहा है उस स्थित मे —
जब अभियुक्त जांच या विचारण के समय स्वस्थ चित्त प्रतीत होता है। और मजिस्ट्रेट का अपने समक्ष दिए गए साक्ष्य से समाधान हो जाता है कि यह विश्वास करने का कारण है कि अभियुक्त ने ऐसा कार्य किया है। जो यदि वह स्वस्थ चित्त होता तो अपराध होता और यह कि वह उस समय जब बह कार्य किया गया था चित्त-विकृति के कारण उस कार्य का स्वरूप या यह जानने में असमर्थ था, कि यह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है. तब मजिस्ट्रेट मामले में आगे कार्यवाही करेगा और यदि अभियुक्त का विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए तो उसे सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए सुपुर्द करेगा।
धारा 334
इस धारा के अनुसार चित्त-विकृति के आधार पर दोष-मुक्ति का निर्णय के बारे मे बताया गया है।
जब कभी कोई व्यक्ति इस आधार पर दोषमुक्त किया जाता है कि उस समय जबकि यह अभिकथित है। कि उसने अपराध किया वह चित्त-विकृति के कारण उस कार्य का स्वरूप, जिसका अपराध होना अभिकथित है, या यह कि वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है जानने में असमर्थ था, तब निष्कर्ष में यह विनिर्दिष्टतः कथित होगा कि उसने वह् कार्य किया या नहीं किय
धारा 335
इस धारा के अनुसार ऐसे आधार पर दोषमुक्त किए गए व्यक्ति का सुरक्षित अभिरक्षा में निरुद्ध किया जाना बताया गया है।
(1) जब कभी निष्कर्ष में यह कथित है कि जब अभियुक्त व्यक्ति ने अभिकथित कार्य किया है । तब वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, जिसके समक्ष विचारण किया गया है, उस दशा में जब ऐसा कार्य उस असमर्थता के न होने पर, जो पाई गई, अपराध होता है।
(क) उस व्यक्ति को ऐसे स्थान में और ऐसी रीति से, जिसे ऐसा मजिस्ट्रेट या न्यायालय ठीक समझे उस अनुसार सुरक्षित अभिरक्षा में निरुद्ध करने का आदेश देगा । अथवा
(ख) उस व्यक्ति को उसके किसी नातेदार या मित्र को सौंपने का आदेश देगा। (2) पागलखाने में अभियुक्त को निरुद्ध करने का उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन कोई आदेश राज्य सरकार द्वारा भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 (1912 का 4) के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार ही किया जाएगा अन्यथा नहीं।
(3) अभियुक्त को उसके किसी नातेदार या मित्र को सौंपने का उपधारा (1) के खंड (ख) के अधीन कोई आदेश ऐसे ऐसे नातेदार या मित्र के आवेदन पर और उसके द्वारा निम्नलिखित बातों की बाबत मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समाधाप्रद प्रतिभूति देने पर ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं
(क) सौंपे गए व्यक्ति की समुचित देख-रेख की जाएगी और वह अपने आपको या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने से निवारित रखा जाएगा:
(ख) सौंपा गया व्यक्ति ऐसे अधिकारी के समक्ष और ऐसे समय और स्थानों पर, जो राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट किए जाएं. निरीक्षण के लिए पेश किया जाएगा।
(4) मजिस्ट्रेट या न्यायालय उपधारा (1) के अधीन की गई कार्रवाई की रिपोर्ट राज्य सरकार को देगा।
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