छद्मता का सिद्धांत या फिर रंग विहीन लेकर सिद्धांत Doctrine of colorable legislation

यह सिद्धांत कब लागू होता है जब किसी विधायिका के पास में किसी विशेष विषय पर कानून बनाने की शक्ति नहीं होती है लेकिन फिर भी वह अप्रत्यक्ष रूप से उस पर कानून बनाता है। इस सिद्धांत को लागू करने से अपेक्षित विधान का भविष्य का निर्णय होता है।

जहां पर किसी राज्य का संविधान विशिष्ट विधायक प्रविष्टियों के द्वारा परिभाषित संविधानिक दायरे को वितरित करता है या फिर हम यह भी कह सकते हैं कि जहां पर मौलिक अधिकारों के अर्थ में विद्या प्राधिकरण पर सीमाएं हूं जहां पर यह सवाल उठ सकता है कि क्या विधायिका ने विशेष मामला यानी कि कानून की विषय वस्तु या सक्रियता की प्रक्रिया नीति को वास्तविक किया फिर दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य के बारे में विधायिका की ओर से किसी भी मुद्दे की आवश्यकता नहीं है।

यदि कोई भी सरकार किसी विशिष्ट कानून को पारित करने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य है तो जो भी कारणों से कार्य करने के लिए प्रेरित करता है वह अर्थहीन है रंगीन कानून यानी कि कुछ ऐसा अप्रत्यक्ष रूप से करना जो सीधे तौर पर नहीं किया जा सकता है यह विचार की न्यायपालिका जो कि आम तौर पर राज्य विधायिका से जुड़ी होती है उसके पास किसी विशेष पहलू पर कानून बनाने की शक्ति नहीं है परंतु फिर भी वह इसे नीत रूप से प्रस्तुत करती है यह रंग विधान सिद्धांत कहलाता है यानी रंगीन सिद्धांत कहलाता है सरकार प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ भी करने में असमर्थ है वह अप्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकती है इस ध्यान को लागू करके आप उचित कानून का भाग्य निर्धारित किया जा सकता है।

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अनुच्छेद 246 द्वारा प्रदान किया गया है जिसने भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची में निर्धारित संघ के लिए सूची एक दुखी राज्य की सूची दो और दोनों से सूचित 3 में विभिन्न विषयों को निर्दिष्ट करके संसदीय और राज्य विधानसभा के विधायक प्रकृति सीमांकन किया है।

भारत में रंगीन विधान सिद्धांत का अर्थ केवल विधायिका के कानून बनाने की शक्ति पर प्रतिबंध लगाना है जबकि सरकार अपने अधिकार के भीतर कार्य करने का दावा करती है ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वास्तव में उसने कुछ शक्तियों का उल्लंघन किया है हम यह भी कह सकते हैं कि जब भी कोई कानून ऐसा करने की कोशिश करता है तो वह विशेष रूप से अप्रत्यक्ष तरीके से नहीं कर सकता है तो यह सिद्धांत मान्य हो जाता है।

इसको हम शक्तियों के पृथक्करण भी कह सकते हैं या फिर शक्तियों का विभाजन या फिर बटवारा भी कह सकते हैं यानी कि सरकार के किसी भी अंग के द्वारा सत्य के दुरुपयोग को रोकने के लिए यह संविधान कहता है कि इनमें से हर किसी अंग को अलग-अलग शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए।

संविधान के केंद्र और राज्यों के बीच उनके विशेष विषय के साथ शक्तियों को भी विभाजित कर दिया गया है। पर कभी-कभी क्या होता है कि विधायक कानून नियम बनाता है जो उसकी क्षमता के क्षेत्र से बाहर होता है जिसका अर्थ यह है कि वे अपनी शक्तियों का उल्लंघन कर रहा है और अप्रत्यक्ष रूप से कुछ ऐसा कार्य कर रहा है जो कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध होने पर विधाई शक्तियां अप्रत्यक्ष रूप से कानून बनाने के रंग रूप प्रयोग कहा जा सकता है इसीलिए विदाई प्राधिकरण के उल्लंघन की जांच करने के लिए रंगीन कानून का सिद्धांत अस्तित्व में आया जिसको रंग भी सिद्धांत भी कह सकते हैं या फिर रंगीन कानून का सिद्धांत भी कह सकते हैं या फिर छदता सिद्धांत भी कह सकते हैं।

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अगर हम एक उदाहरण से समझाएं तो यह बहुत ही स्पष्ट हो जाएगा जैसे कि मान लीजिए आपके पास आम का एक बगीचा है और उसके बगल में ही एक खेल का मैदान है तो खेल के मैदान में खेलने वाले बच्चे जब भी अपनी गेंद से आपके बगीचे में फेंकते हैं और उसे वापस लेने आते हैं वहां से कुछ फल भी तोड़ कर ले जाते हैं लेकिन वह यह कह कर भाग जाते हैं कि वह केवल गेंद लेने आए थे यहां ऐसा प्रतीत होता है कि जो फल को देखने वाला परिचारक है वह दूसरे कार्यकाल में एक कार्य में संलग्न है क्योंकि बच्चों को आप गेम लेने से मना नहीं कर सकते हैं और अपनी गेंद को एकत्र करने के वजह से आम के फल को नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि स्वयं के गहनों को एकत्र करना अनुमत है और उसको निषिद्ध नहीं किया जा सकता है इसलिए रंगीन कानून ऐसे सवालों से भी नहीं पड़ता है जिसमें यह कानून को दूसरे कानून की आड़ में माना जाता है।

रंगीन कानून भारतीय संविधान के 10 सिद्धांतों में से एक है जिसका मुख्य रूप से मतलब रंगीन विधान से है जो कि इसका असली रंग नहीं है इसको रंगहीन भी कह सकते हैं इसीलिए जब भी संज्ञा राज्य अपने संबंधित विदाई क्षमता का अतिक्रमण करते हैं और इस प्रकार का कानून बनाते हैं तो उस कानून की विदाई जवाबदेही निर्धारित करने के लिए रंग-बिरंगे कानून तस्वीर में आ जाते हैं।

यह सिद्धांत अधीनस्थ कानून पर लागू नहीं होता है यह केवल किसी विशेष विधाई निकाय की किसी विशेष कानून को नियमित करने की क्षमता के प्रश्नों पर आधारित है। ऐसी धारणा की हमेशा कानून की संवैधानिक के पक्ष में होती है और वह उस व्यक्ति पर होता है जो उसे दिखाना चाहता है की संवैधानिक सिद्धांत का स्पष्ट रूप से उल्लंघन हुआ है या फिर जो कोई भी किसी नए कानून को अदालत में ले जा रहा है और दावा यह कर रहा है कि यह एक रंगीन कानून है तो उसे यह साबित करना होगा कि कानून एक रंगीन कानून कैसे हैं।

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