भारतीय दंड संहिता धारा 194 से 198 तक का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे भारतीय दंड संहिता तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराये नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी।

धारा 194-

इस धारा के अनुसार अपराध का जन्म तब होता है। जब अभियुक्त ने किसी व्यक्ति की मृत्यु से दंडित अपराध के लिए दोषसिद्ध कराने के आशय से मिथ्या सबूत दिया हो अथवा गढ़ा हो।

अजीवन कारावास जो कि कठिन कारावास होगा दंड का निर्धारण किया गया है। और यदि झूठा सबूत देने के कारण किसी व्यक्ति की दोषसिद्धि हो जाती है। तो उसे फांसी दे दी जाती है तो इस स्थिति में इस प्रकार का झूठा साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को भी मृत्यु दंड दिया जाएगा। तो उस व्यक्ति को जो ऐसा मिथ्या साक्ष्य देगा या तो मृत्यु दंड या एतस्मिन्पूर्व वर्णित दंड दिया जाएगा ।

धारा 195-

इस धारा के अनुसार जो भी कोई इस आशय से या यह सम्भाव्य जानते हुए कि एतद्द्वारा किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए जो भारत में तत्समय प्रवॄत्त विधि द्वारा मॄत्यु से दण्डनीय न हो किन्तु आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय हो। दोषसिद्ध कराने के लिए, मिथ्या साक्ष्य देगा या गढ़ेगा वह वैसे ही दण्डित किया जाएगा जैसे वह व्यक्ति दण्डनीय होता जो उस अपराध के लिए दोषसिद्ध होता। लागू अपराध ऐसे अपराध जो आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय हो का दोषसिद्ध कराने के लिए, झूठा साक्ष्य देना या गढ़ना। यह एक जमानती गैर-संज्ञेय अपराध है और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है। यह अपराध समझौता करने योग्य नहीं है।

धारा 196-

इस धारा के अनुसार उस साक्ष्य को काम में लाना जिस का मिथ्या होना ज्ञात होता है। जो कोई किसी साक्ष्य के अनुसार जिस का मिथ्या होना या गढ़ा जाना वह जनता है। या फिर जो सच्चे या असली साक्ष्य के रूप में भ्रष्टतापूर्वक उपयोग में लाएगा या उपयोग में लाने का प्रयत्न करेगा तो उस अनुसार वह ऐसे दण्डित किया जायेगा । जैसे मिथ्या साक्ष्य दिया हो या गढ़ा हो।

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धारा 197-

इस धारा के अनुसार न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन के बारे मे बताया गया है।
इस धारा के अनुसार जब किसी व्यक्ति पर जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या लोक सेवक है। जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है। अन्यथा नहीं किसी ऐसे अपराध का अभियोग है। उस अनुसार उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था। जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञानमे लिया जाता है।

ऐसे व्यक्ति की दशा में जो संघ के कार्यकलाप के संबंध मेंजो यथास्थिति नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित या केंद्रीय सरकार के द्वारा गठित होता है।

ऐसे व्यक्ति की दशा में जो किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में जो यथास्थित नियोजित है । तो अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था। उस राज्य सरकार की, पूर्व मंजूरी से ही करेगा अन्यथा नहीं करेगा।

किसी व्यक्ति द्वारा उस अवधि के दौरान किया गया था जब राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा प्रवृत्त थी।

खंड (ख) इस प्रकार लागू होगा मानो उसमें आने वाले “राज्य सरकार” पद के स्थान पर केंद्रीय सरकार” पद रख दिया गया है।

इसमे शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि ऐसे किसी लोक सेवक की दशा में, जिसके बारे में यह अभिकथन किया गया है कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 166क, धारा 166ख, धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 370, धारा 375, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ग, धारा 3764 या धारा 509 के अधीन कोई अपराध किया है।

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यदि कोई भी न्यायालय संघ के सशस्त्र बल के किसी सदस्य द्वारा किए गए किसी अपराध का संज्ञान जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा अन्यथा नहीं।

इसमे राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकती है जिसमे कि उसमें यथाविनिर्दिष्ट बल के ऐसे वर्ग या प्रवर्ग के सदस्यों को जिन्हें लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्यभार सौंपा गया है। जहां कहीं भी वे सेवा कर रहे हों, उपधारा (2) के उपबंध लागू होंगे और तब उस उपधारा के उपबंध इस प्रकार लागू होंगे मानों उसमें आने वाले केंद्रीय सरकार” पद के स्थान पर “राज्य सरकार” पद रख दिया गया है।

यदि किसी बात के होते हुए भी कोई भी न्यायालय ऐसे बलों के किसी सदस्य द्वारा, जिसे राज्य में लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, किए गए किसी ऐसे अपराध का संज्ञान जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह्, उस राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा के प्रवृत्त रहने के दौरान अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था। केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा अन्यथा नहीं।

इस संहिता में या किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी यह घोषित किया जाता है। उस तारीख की ठीक पूर्ववर्ती तारीख को समाप्त होने वाली अवधि के दौरान ऐसे किसी अपराध के संबंध में जिसका उस अवधि के दौरान किया जाना अभिकथित है।

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जब संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा राज्य में प्रवृत्त थी राज्य सरकार द्वारा दी गई कोई मंजूरी या ऐसी मंजूरी पर किसी न्यायालय द्वारा किया गया कोई संज्ञान अविधिमान्य होगा और ऐसे विषय में केंद्रीय सरकार मंजूरी प्रदान करने के लिए सक्षम होगी तथा न्यायालय उसका संज्ञान करने के लिए सक्षम होगा।

इसमे केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का जिसके द्वारा और उस रीति का जिससे वह अपराध या वे अपराध जिसके या जिनके लिए ऐसे न्यायाधीश मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किया जाना है। अवधारण कर सकती है और वह न्यायालय विनिर्दिष्ट कर सकती है जिसके समक्ष विचारण किया जाना है।

धारा 198-

इस धारा के अनुसार प्रमाणपत्र को जिसका मिथ्या होना ज्ञात है। सच्चे के रूप में काम में लाना -जो कोई किसी ऐसे प्रमाणपत्र को यह जानते हुए कि यह किसी तात्विक बात के संबंध में मिथ्या है। सच्चे प्रमाणपत्र के रूप में भ्रष्टतापूर्वक उपयोग में लाएगा या उपयोग में लाने का प्रयत्न करेगा की वह ऐसे दण्डित किया जायेगा मानो उसने मिथ्या साक्ष्य दिया हो या गढ़ा हो।

यदि आपको इन धाराओ को समझने मे कोई परेशानी आ रही है। या फिर यदि आप इससे संबन्धित कोई सुझाव या जानकारी देना चाहते है।या आप इसमे कुछ जोड़ना चाहते है। तो कृपया हमे कमेंट बॉक्स मे जाकर अपने सुझाव दे सकते है। और प्रश्न भी कर सकते है।

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