भारतीय संविधान के अनुसार अनुच्छेद 122 से 124 तक का वर्णन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे हमने भारतीय संविधान के अनुसार अनुच्छेद 121  तक का वर्णन किया था अगर आप इन धाराओं का अध्ययन कर चुके है। तो यह आप के लिए लाभकारी होगा । यदि आपने यह धाराएं नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी।

अनुच्छेद 122

इस अनुच्छेद मे न्यायालयों द्वारा संसद की कार्यवाहियों की जांच न किया जाना बताया गया है।

(1)इसके अनुसार  संसद की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।

(2) संसद का कोई अधिकारी या सदस्य  जिसमें इस संविधान द्वारा या उसके अधीन संसद में प्रक्रिया या फिर किसी  कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा उनमे व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियाँ निहित हैं। तब  उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय के अधीन नहीं होगा।

अनुच्छेद 123

इस अनुच्छेद के अनुसार संसद‌ के विश्रांतिकाल में अध्‍यादेश प्रख्यापित करने की राष्ट्रपति की शक्ति को बताया गया है।

(1)  इस अनुच्छेद के अनुसार उस समय को छोड़कर जब संसद‌ के दोनों सदन सत्र में चल रहे हो।  यदि किसी भी समय राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं । जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है।  तो वहइस प्रकार का  अध्‍यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों।

(2) इस अनुच्छेद के अधीन  रहते हुए प्रख्यापित अध्‍यादेश का वही बल का  प्रभाव होगा जो संसद‌ के अधिनियम का होता है। पर ऐसा हो सकता है कि-

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(क) संसद‌ के दोनों सदनों के समक्ष प्रख्यापित अध्‍यादेश को रखा जाएगा । और संसद‌ के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले दोनों सदन उसके अननुमोदन का संकल्प पारित कर देते हैं । तो इनमें से दूसरे संकल्प के पारित होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा।  और
(ख) राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा।

स्पष्टीकरण-

जहाँ संसद‌ के सदनजो कि  भिन्न-भिन्न तारीखों को पुनः समवेत होने के लिए आहूत किए जाते हैं । वहाँ इस खंड के प्रयोजनों के लिए छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चात्‌वर्ती तारीख से की जाएगी।

(3) यदि  जहाँ तक इस अनुच्छेद के अधीन अध्‍यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है । तो जिसे अधिनियमित करने के लिए संसद‌ इस संविधान के अधीन सक्षम नहीं है तो और वहाँ तक वह अध्‍यादेश शून्य होगा।

इस अनुच्छेद मे निम्न संशोधन किए गए।

संविधान (अड़तीसवाँ संशोधन) अधिनियम 1975 की धारा 2 द्वारा खंड (4) अंतःस्थापित किया गया । और संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम 1978 की धारा 16 द्वारा (20-6-1979 से) उसका लोप किया गया।

अनुच्छेद 124

इस अनुच्छेद के अनुसार उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन को बताया गया है।

(1) इस अनुच्छेद के अनुसार भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा। और  जो भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति और जब तक संसद‌ विधि द्वारा अधिक संख्‍या विहित नहीं करती है तब तक सात या उससे अधिकअन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा।

(2) उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद ही  जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे।  राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त कर सकते है। और उनके द्वारा नियुक्त न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक वह पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।

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परन्तु मुख्‍य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति से सदैव परामर्श लिया जाएगा।

परन्तु यह और कि –
(क) कोई भी न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग कर सकता है। ”

(ख) किसी न्यायाधीश को खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा।

(2क) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की आयु ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से अवधारित की जाएगी जिसका संसद‌ विधि द्वारा उपबंध किया जाता है।

(3) कोई व्यक्ति जो कि  उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब वह भारत का नागरिक है।  और
(क) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या दो से अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश रहा है।  या

(ख) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो ।  या

(ग) राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता है।

स्पष्टीकरण

इस खंड में ”उच्च न्यायालय” से वह उच्च न्यायालय अभिप्रेत है।  जो कि  भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में अधिकारिता का प्रयोग करता है।  या इस संविधान के प्रारंभ से पहले किसी भी समय प्रयोग करता था।

स्पष्टीकरण 2

इस खंड के प्रयोजन के लिए यदि  किसी व्यक्ति के अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात्‌ ऐसा न्यायिक पद धारण किया है। तो  जो जिला न्यायाधीश के पद से अवर नहीं है।

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(4) उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता है।  जब तक साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाए जाने के लिए संसद‌ के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्‍या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है।

(5) संसद‌ खंड (4) के अधीन किसी समावेदन के रखे जाने की तथा न्यायाधीश के कदाचार या असमर्थता के अन्वेषण और साबित करने की प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन कर सकेगी।

(6) उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति कभी भी अपना पद ग्रहण करने के पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्ति व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।

(7) कोई व्यक्ति जिसने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है। वह  भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकारी के समक्ष ओंभवचन या कार्य नहीं करेगा।

इसमे निम्न संशोधन किए गए है।
 1986 के अधिनियम, सं.22 की धारा 2 के अनुसार अब यह संख्‍या ”पच्चीस” है।

 संविधान (पन्द्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापितहै।

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