Indian Contract Act ( भारतीय संविदा अधिनियम ) के अनुसार (contract characteristics) संविदा के लक्षण का विस्तृत अध्ययन

सामान्य भाषा मे अगर हम बात करे तो contract कांट्रैक्ट का अर्थ किसी से सहमति रखना यहा कांट्रैक्ट का मतलब दो या दो से अधिक लोंगों को किसी कार्य को करने या न करने को लेकर सहमति से हैं यह एक ऐसा समझौता होता हैं जिसमे दोनों की सहमति आवश्यक हैं । अनुबन्ध (Contract) शब्द की उत्पति लेटिन शब्द कॉन्ट्रैक्टम (Contracturm) से हुई है, जिसका अर्थ है आपस में मिलना जब दो लोग आपस मे मिलकर निर्णय लेते हैं की किसी कार्य को करना हैं या नही । इसके कुछ भाग हैं जो की contract ( संविदा) के लिए आवश्यक हैं। संविदा कानून द्वारा प्रवर्तन किया जाने वाला करार हैं यदि कोई करार कानून द्वारा प्रवर्तित नही किया गया तो वह करार संविदा (कांट्रैक्ट) नही हैं । इसमे अक प्रस्ताव और दूसरा acceptance स्वीक्रती होना जरूरी होता हैं । contract का पहला चरण प्रस्ताव (proposal ) होता हैं इसमे हम कोई सामान बेचते हैं या फिर सेवा प्रदान करते हैं। कांट्रैक्ट का दूसरा चरण स्वीक्रती होती हैं जब हम proposal प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं तो वह संविदा बन जाता हैं। कांट्रैक्ट मे इन चीजों का होना जरूरी हैं |

ठहराव. प्रस्ताव एवं स्वीकृति

पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता

पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति

वैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य

एक valid contract  के लिए यह आवश्यक है कि उसमे दो या दो से अधिक पक्षकार होने चाहिए। कम से कम दो पक्षकारों का होना इसलिए आवश्यक होता है कि एक पक्षकार  प्रस्ताव करता है और दूसरा पक्षकार उस पर अपनी सहमति व्यक्त करता है।अनुबन्ध में एक पक्षकार का दायित्व उत्पन्न होता है और दूसरे पक्षकार को कुछ वैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं। कोई भी एक व्यक्ति स्वयं ही प्रस्ताव एवं स्वीकृति दोनों कार्य एक साथ नही कर सकता है। कुछ ऐसे प्रस्ताव भी होते हैं जो सभी के लिए खुले होते हैं जैसे आजकल टेंडर

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जब एक पक्षकार द्वारा किया गया प्रस्ताव दूसरे पक्षकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह वचन बन जाता है। ठहराव के दोनों ही पक्षकार एक दूसरे को प्रतिफल के रुप में वचन देते हैं ‘  प्रस्ताव एवं स्वीकृति ठहराव के अनिवार्य तत्व हैं

पक्षकारों की आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की चाहत (Intention of the parties to create Legal Relations) –

वैध अनुबन्ध  valid contract के लिए ठहराव के पक्षकारों की आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा होना आवश्यक है। एक व्यक्ति द्वारा अपने मित्र के यहां कथा सुनने का प्रस्ताव  स्वीकार करना अनुबन्ध नही हो सकता है। अनुबन्ध एक खाली समय का खेल नही होना चाहिए।  यह केवल आनन्द एवं हंसी-मजाक की वस्तु नही होना चाहिए।  जिसमें गम्भीर परिणामों की पक्षकारों द्वारा कभी इच्छा न की गयी हो । अनुबन्ध करते समय पक्षकारों के मन में यह बात उत्पत्र होना आवश्यक है कि उनके एक-दूसरे के प्रति वैधानिक दायित्व उत्पत्र हुए हैं एवं उन्हें एक; दूसरे के विरुद्ध उन दायित्वों को पूरा कराने के लिए वैधानिक अधिकार भी प्राप्त हुए हैं जिनका उपयोग वे आवश्यकता पड़ने पर कर सकतेहैं। जैसे  सामान का क्रय-विक्रय करने सम्बन्धी ठहराव अनुबन्ध का रुप लेते हैं क्योंकि इन ठहरावों में पक्षकारों के मध्य वैधानिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं।

 पक्षकारों में अनुबन्ध करनेकी क्षमता (Contractual Capacity of the Parties) – अनुबन्ध की वैधता के लिए यह आवश्यक हैकि पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता होनी चाहिए।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अनुसार केवल वे व्यक्ति ही अनुबन्ध करने की क्षमता रख सकते हैं ।

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जो वयस्क हैं

जिनका स्वस्थ मस्तिष्क हैं।

जो राजनियम द्वारा अनुबन्ध के लिए अयोग्य घोषित नही किये गये हैं।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि  राजनियम द्वारा अनुबन्ध के लिए अयोग्य घोषित व्यक्ति जैसे राष्ट्रपति, विदेशी राजदूत तथा दिवालिया आदि

 

अनुबन्ध के सभी पक्षकारों के मध्य  में स्वतन्त्र सहमति होनी चाहिए। सहमति से आशय ठहराव के पक्षकारों का समान विचार रखते हुए सभी बातों के लिए आपस में सहमत होने से है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर एक ही भाव से सहमत होते हैं तो इसे सहमति कहते हैं।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अनुसार निम्नलिखित तत्वों के आधार पर प्राप्त सहमति स्वतन्त्र नही मानी जाती है :

(i) उत्पीड़न

(ii) अनुचित प्रभाव

(iii) कपट

(iv) मिथ्या-वर्णन अथवा मिथ्या-कथन

(v) गलती।

अनुबन्ध के राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए वैधानिक प्रतिफल का होना आवश्यक होता है। प्रतिफल से तात्पर् दोनों पक्षकार  द्वारा वचनदाता की इच्छा पर किये गये कार्य अथवा कोई कार्य करने अथवा कार्य करने से विरत रहने के लिए दिये गये वचन से है। ठहराव में प्रतिफल ही इस बात का  प्रमाण है कि पक्षकार आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा रखते हैं। इसके अतिरिक्त ठहराव का उद्देश्य भी न्यायोचित होना चाहिए। ठहराव देश में प्रचलित किसी भी राजनियम के प्रावधानों को निष्फल करने वाला अथवा उस ठहराव का उद्देश्य कपटपूर्ण , अनैतिक तथा लोकनीति के विरुद्ध नही होना चाहिए।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा निम्नलिखित ठहरावों को स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित किया गया है जिनको सामान्य परिस्थिति में राजनियम द्वारा प्रवर्तित नही कराया जा सकता है :

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अनुबन्ध के अयोग्य पक्षकारों द्वारा किये गये ठहराव।

अवैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य वाले ठहराव।

कुछ अपवादों को छोड़कर बिना प्रतिफल वाले ठहराव।

 

व्यापार में रुकावट डालने वाले ठहराव।

वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने वाले ठहराव।

अनिश्चित अर्थ वाले ठहराव।

बाजी के ठहराव।

असम्भव कार्य को करने के ठहराव।

कुछ प्रमुख अनुबन्ध जिनका राजनियम द्वारा लिखित होना अनिवार्य है वह इस प्रकार हैं।

चैक, बिल, प्रतीज्ञा-पत्र एवं हुण्डी आदि विनियमसाध्य प्रलेख।

बीमा अनुबन्ध

पंचनिर्णय का समझौता

अवधि वर्जित ऋण के भुगतान का वचन

कम्पनी के पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अन्तर्नियम

निश्चितता (Certainty) – वैध अनुबन्ध का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि उसमें निश्चितता का गुण होना चाहिए। जिन ठहरावों में अर्थ , विषयवस्तु, निष्पादन का तरीका, वस्तु का मूल्य आदि निश्चित नही है अथवा निश्चित किया जाना सम्भव नहीं है, उनको राजनियम द्वारा प्रवर्तित नही कराया जा सकता है। इस प्रकार के ठहराव अनुबन्ध नही हो सकते हैं।

निष्पादन की सम्भावना (Possibility of Performance) – प्रत्येक ठहराव का मुख्य उद्देश्य उसका निष्पादन करना होता ठहराव मे निष्पादन जरूरी क्रिया हैं यदि ठहराव ऐसा है जिसका निष्पादन किया जाना  संभव नही हैं तो वह contract नही हो सकते हैं कुछ ठहराव ऐसे होते हैं जिनका निर्माण के समय तो निष्पादन किया जाना सम्भव होता है परन्तु बाद में कुछ कारणों से निष्पादन किया जाना असम्भव हो जाता है जैसे- विषयवस्तु का नष्ट हो जाना, युद्ध या आन्तरिक अशान्ति की स्थिति उत्पन्न होना तथा राजनियम में परिवर्तन होना।

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