सिविल प्रक्रिया संहिता धारा 93 तथा धारा 94 का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 92 तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी। और पढ़ने के बाद हमें अपना कमेंट अवश्य दीजिये।

धारा 93 –

इस धारा के अनुसार प्रेसीडेंसी नगरो से बाहर महाधिवक्ता की शक्तियों के प्रयोग के बारे मे बताया गया है। इस धारा मे यह बताया गया है की महाधिवक्ता को धारा 91 और धारा 92 द्वारा प्राप्त शक्तियों का प्रयोग प्रेसेड़ेंकी नगरो से बाहर राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के दावरा कलेक्टर या ऐसे कोई अधिकारी  भी कर सकता है जिसको राज्य सरकार इस बात के लिए नियुक्त करता है।

धारा 94 –

इस धारा के अनुसार न्यायालय के कार्य की अनुपूरक कार्यवाहियों को बताया गया है। इसके अनुसार न्याय्यलय का कार्य केवल न्याय देना ही नही बल्कि यह देखना भी है की जो कार्यवाही की जा रही है वह विफल तो नही हो रही है। न्यायालय के अधीन जो कोर्ट आते है उसपर ध्यान रखता है। न्याय्यलय उस दशा मे जिसमे ऐसा करना निहित होता है जिसमे –

प्रतिवादी को गिरफ्तार करने के लिए और न्याय्यलय के सामने इस बात को दर्शित करने के लिए लाये जाने के लिए की उसने अपने उपसंजात होने के लिए प्रतिभूति क्यो नही लेना चाहिए । इसके लिए वारंट निकाल सकता है तथा यदि वह प्रतिभूति देने मे अशफल रहता है तो उसको सिविल कारागार मे सुपुर्द कर दिया जाएगा।

ऑर्डर 38 –

निर्णय से पहले गिरफ्तारी और कुर्की को बताया गया है। इसके अनुसार  यदि प्रतिवादी को न्याय्यलय के सामने आने के लिए प्रतिभूति मांगी जाती है तो –

जहा धारा 16 के खंड क से घ तक निर्दिस्ट सभी बात किसी भी प्रक्रम मे न्याय्यलय का सपद पत्र के द्वारा समाधान हो जाता है कि –
(क) प्रतिवादी वादी को विलंबित करनेअथवा  न्यायालय के किसी आदेशिका से बचने के लिए या फिर  ऐसे किसी भी प्रकार के  किसी डिक्री के जो उसके विरुद्ध पारित किए जाए निष्पादन को  विलंबित किया करने के  आशय से किया जाता है।

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( 1) यदि कोई  व्यक्ति न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओ से फरार हो गया है या फिर  उन्हें छोड़ गया है। अथवा
(2) न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से फरार होने का आशय रखता है  या उन्हें  छोड़ने ही वाला है।  अथवा
(3) अपनी संपत्ति को या उस संपत्ति के  किसी भाग को व्यनित कर चुका है । या न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से हट चुका है।  अथवा

 प्रतिवादी ऐसी  किसी भी  परिस्थितियों के अधीन भारत छोड़ने  वाला है। या फिर प्रयास कर रहा है।  जिनसे यह युक्ति युक्त अधिसम्भाव्यता है कि वादी किसी ऐसी डिक्री के जो वाद में प्रतिवादी के विरुद्ध पारित किए जाएं।  निष्पादन में उसके द्वारा बाधित या विलंबित होगा या हो सकेगा।

वहां न्यायालय के  प्रतिवादी की गिरफ्तारी के लिए और न्यायालय के समक्ष उसे इसलिए लाए जाने के लिए कि वह यह  हेतुक दर्शित  करें कि वह अपनी  उपसंजाति  के लिए प्रतिभूति क्यों न दे और यदि प्रतिभूति को नही देता है तो न्यायालय कभी भी  वारंट निकाल सकेगा।

परंतु यदि प्रतिवादी कोई ऐसी रकम जो वादी के दावे को तुष्ट करने के लिए पर्याप्त  होने के तौर पर वारंट में बताई गयी है।  उसी अधिकारी को जिसे वारंट  का निष्पादन न्यस्त किया गया है। उसको दे देता है तो वह गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और ऐसी रकम न्यायालय  द्वारा तब तक जमा रखी जाएगी जब तक वाद  का निपटारा ना हो जाए या जब तक न्यायालय को आगे और आदेश ना हो जाए।

इस धारा के अनुसार न्यायालय का मुख्य कार्य न्याय प्रदान करना है । तथा न्याय का मुख्य उद्देश्य सभी  पक्षकारों के उनके  अधिकारों का प्रवर्तन करना है । जिनके लिए वे अधिकृत किए गए हैं। न्यायालय उक्त कार्य आज्ञप्ति, निर्णय अथवा आदेश के माध्यम से पूरा करते हैं। न्यायालय द्वारा प्रदत्त सभी प्रकार की  आज्ञप्ति दोनों पक्षकारों के लिए  बाध्यकारी होती है। उस पर  कोई भी प्रकार उससे बच नहीं सकता। यदि प्रतिवादी ऐसी आज्ञप्ति  से बचना चाहता है, उसमें विलंब करना चाहता है।  अथवा उसे विफल बनाना चाहता है । तो उसके लिए न्यायालय उसे ऐसा नहीं करने देता।

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(2) प्रतिभुति –

जहां पर  प्रतिवादी ऐसा हेतुक दर्शित करने में असफल रहता है। तो फिर  वहां न्यायालय या तो उसे अपने विरुद्ध दावे उत्तर के लिए पर्याप्त धन या अन्य संपत्ति न्यायालय में जमा करने के लिए या उसे समय तक जब तक वाद को  लंबित रखता है।   और जब तक ऐसे किसी डिग्री की जो उस वाद में उसके विरुद्ध पारित की जाए। या फिर उसकी  तुष्टि नहीं की जाती। या फिर  बुलाए जाने पर किसी भी समय अपनी उपसजाति के लिए प्रतिभूति देने के लिए आदेश दे सकता है ।  या उस राशि की बाबत जो प्रतिवादी ने अंतिम पूर्ववर्ती नियम के परंतुक  के अधीन जमा कर दी  हो ऐसा आदेश कर सकेगा जैसा वह ठीक समझे।

 प्रतिवादी की उपसजाति के लिए हर प्रतिभू अपने  आप को आबद्ध करेगा।  कि वह ऐसी उपसंजाति  में व्यतिक्रम होने पर ऐसी कोई राशि देगा जिसे देने के लिए प्रतिवादी वाद में आदिष्ट किया जाए।

(3) उन्मोचित किए जाने के लिए प्रतिभू के आवेदन प्रक्रिया-

(1) प्रतिवादी की उपसंजाति  के लिए प्रतिभू उस न्यायालय से जिसमें वह ऐसा प्रतिभू हुआ है, अपनी बाध्यता से  उन्मोचित किए जाने के लिए किसी भी समय आवेदन कर सकेगा।
(2) ऐसा आवेदन किए जाने पर न्यायालय प्रतिवादी को उपसंजात होने के लिए समन करेगा या यदि वह ठीक समझे तो उनकी गिरफ्तारी के लिए प्रथम बार ही वारंट निकाल सकेगा।
(3) समन या वारंट के अनुसरण मैं प्रतिवादी को उपसंजात होने पर या उसके  स्वेच्छाया अभ्यर्पण करने पर न्यायालय प्रतिभु को उसकी बाध्यता से उन्मोचित करने के लिए निर्देश देगा और नई प्रतिभूति लाने की अपेक्षा प्रतिवादी से करेगा।

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जहां प्रतिवादी प्रतिभूति देने में या नई प्रतिभूति लाने में असफल रहता है वहां निम्न प्रक्रिया अपनाई जाती है।

जहां प्रतिवादी नियम 2 या नियम 3 के अधीन किसी भी  आदेश का अनुपालन करने में असफल रहता है। तो  वहां न्यायालय उसे सिविल कारागार को तब तक के लिए सुपुर्द कर देगा । जब तक वाद का विनिश्चय ना हो जाए या जहां प्रतिवादी के विरुद्ध डिक्री पारित कर दी गई है।  वहां जब तक डिक्री तुष्ट न कर दी जाए।

परंतु कोई भी व्यक्ति कारागार में इस नियम के अधीन किसी भी दशा में 6 माह से अधिक की अवधि के लिए और वाद की विषय वस्तु की रकम या मूल्य ₹50 से अधिक यदि नहीं है । तो उसको  6 सप्ताह से अधिक की अवधि के लिए निरुद्ध नहीं किया जाएगा।

परंतु यह भी ऐसी आदेश का उसके द्वारा अनुपालन कर दिए जाने के पश्चात कोई भी व्यक्ति इस नियम के अधीन कारागार में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा।

ऐसे व्यक्ति को न्यायालय निर्णय से पूर्व ही गिरफ्तार कर लेता है।  अथवा उसकी संपत्ति को कुर्क करने का आदेश दे सकता है।  इसका उल्लेख संहिता की धारा 94 एवं 95  तथा आदेश 38 में किया गया है। इस प्रकार निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी एवं कुर्की का मुख्य उद्देश्य आज्ञप्ति के फलों को सुनिश्चित करना एवं प्रतिवादी को उस आज्ञप्ति के निष्पादन को विफल करने से रोकना है। इस परकार सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 38 निम्न प्रकार से उपबंधित किया गया है।

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