(सीआरपीसी) दंड प्रक्रिया संहिता धारा 192 से 195 तक का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 191  तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने में आसानी होगी.

धारा192

इस धारा के अनुसार जब कोई मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटकिसी  अपराध का संज्ञान करने के पश्चात् मामले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है। और  मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जो की अपराध का संज्ञान करने के पश्चात्, मामले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी ऐसे सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकता है।  जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट साधारण या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे तथा  तब ऐसा मजिस्ट्रेट जांच या विचारण कर सकता है।

इसके अनुसार —

(1) कोई मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अपराध का संज्ञान करने के पश्चात्मा मले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकता है।

(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जो की अपराध का संज्ञान करने के पश्चात्, मामले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी ऐसे सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकता है जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट साधारण या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे, और तब ऐसा मजिस्ट्रेट जांच या विचारण कर सकता है।

धारा 193

इस धारा के अनुसार  इस संहिता के द्वारा या तत्समय प्रवृत्त के द्वारा या किसी अन्य विधि के द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है।  उसके सिवाय, कोई सेशन न्यायालय आरम्भिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं कर दिया गया है।

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इसमे अपराधों का सेशन न्यायालयों द्वारा संज्ञान मे लेना बताया गया है —

इस संहिता द्वारा या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, कोई सेशन न्यायालय आरम्भिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं कर दिया गया है।

धारा 194

इस धारा के अनुसार अपर और सहायक सेशन न्यायाधीशों को हवाले किए गए मामलों पर उनके द्वारा विचारण को बताया गया है।

इसके अनुसार अपर सेशन न्यायाधीश या सहायक सेशन न्यायाधीश ऐसे मामलों का विचारण करेगा।  जिन्हें विचारण के लिए उस खण्ड का सेशन न्यायाधीश साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसके हवाले करता है । या फिर जिनका विचारण करने के लिए उच्च न्यायालय विशेष आदेश द्वारा उसे निदेश देता है।

धारा 195

इस धारा के अनुसार जब लोक न्याय के विरुद्ध अपराध जैसे मामलों में अपराध से  संबंधी साक्ष्य के रूप में दिए गए दस्तावेज अथवा दस्तावेजों से संबंधित अपराधो के लिए लोक सेवकों द्वारा विधिपूर्ण क्रिया कलाप अर्थात्न्या यालय में किसी ऐसे मामले को इस प्रकार रखने की प्रकिया को बताया गया है।

जिसके अनुसार —

(1) कोई न्यायालय-
(क) (i) भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 172 से धारा 188 तक की धाराओं के अन्तर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) जिसमे  दण्डनीय किसी भी अपराध का, अथवा

(ii) ऐसे अपराध के किसी दुष्प्रेरण या ऐसा अपराध करने के प्रयत्न करने पर  अथवा

(iii) ऐसा अपराध करने के लिए किसी आपराधिक षड्यंत्र का संज्ञान संबद्ध लोक सेवक के द्वारा या किसी अन्य ऐसे लोक सेवक के, जिसके
वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है। उसके द्वारा लिखित परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं।

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(ख) (i) भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की निम्नलिखित धाराओं के अंतर्गत अर्थात् 193 से 196 तक  199, 200, 205 से 211 (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) और 228 में से किन्हीं के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का जो की  जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में या उसके सम्बन्ध में किया गया है।

 अथवा
(ii) उसी संहिता की धारा 463 वर्णित या धारा 475 या धारा 476 के अधीन दण्डनीय अपराध काजो की  जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में पेश की गई साक्ष्य में दी गई किसी दस्तावेज के बारे में किया गया है।
 

अथवा

(iii) उपखण्ड (i) या उपखण्ड (ii) में विनिर्दिष्ट किसी अपराध को करने के लिए आपराधिक षड्यंत्र या उसे करने के प्रयत्न या उसके दुष्प्रेरण के अपराध का, जिसमे ऐसे न्यायालय के या न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा जैसा वह न्यायालय इस निमित्त लिखित में प्राधिकृत करे या किसी अन्य न्यायालय केद्वारा  जिसके वह न्यायालय अधीनस्थ है। उसके द्वारा  लिखित परिवाद, पर ही करेगा। अन्यथा नहीं” को प्रतिस्थापित किया जाएगा।]

(2) जहां किसी लोक सेवक द्वारा उपधारा (1) के खण्ड (क) के अधीन कोई परिवाद किया गया है। वहां ऐसा कोई प्राधिकारी, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, उस परिवाद को वापस लेने का आदेश दे सकता है । और ऐसे आदेश की प्रति न्यायालय को भेजेगा और न्यायालय द्वारा उसकी प्राप्ति पर उस परिवाद के सम्बन्ध में आगे कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।  परन्तु ऐसे वापस लेने का कोई आदेश उस दशा में नहीं दिया जाएगा जिसमें विचारण प्रथम बार के न्यायालय में समाप्त हो चुका है।

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(3) उपधारा (1) के खण्ड (ख) में “न्यायालय” शब्द से कोई सिविल, राजस्व या दण्ड न्यायालय अभिप्रेत है और उसके अन्तर्गत किसी केन्द्रीय, प्रान्तीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन गठित कोई अधिकरण भी है यदि वह उस अधिनियम द्वारा इस धारा के प्रयोजनार्थ न्यायालय घोषित किया गया है।

(4) उपधारा (1) के खण्ड (ख) के प्रयोजनों के लिए कोई न्यायालय उस न्यायालय के जिसमें ऐसे पूर्वकथित न्यायालय की अपीलनीय डिक्रियों या दण्डादेशों की साधारणतया अपील होती है, अधीनस्थ समझा जाएगा या ऐसा सिविल न्यायालय, जिसकी डिक्रियों की साधारणतया कोई अपील नहीं होती है, उस मामूली आरम्भिक सिविल अधिकारिता वाले प्रधान न्यायालय के अधीनस्थ समझा जाएगा जिसकी स्थानीय

अधिकारिता के अन्दर ऐसा सिविल न्यायालय स्थित है :

परन्तु –

(क) जहां अपीलें एक से अधिक न्यायालय में होती हैं वहां अवर अधिकारिता
वाला अपील न्यायालय वह न्यायालय होगा जिसके अधीनस्थ ऐसा न्यायालय समझा
जाएगा;

(ख) जहां अपीलें सिविल न्यायालय में और राजस्व न्यायालय में भी होती हैं
वहां ऐसा न्यायालय उस मामले या कार्यवाही के स्वरूप के अनुसार, जिसके
सम्बन्ध में उस अपराध का किया जाना अभिकथित है, सिविल या राजस्व न्यायालय
के अधीनस्थ समझा जाएगा।

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