(सीआरपीसी) दंड प्रक्रिया संहिता धारा 231 से धारा 235 का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 230 तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने में आसानी होगी।

धारा 231

इस धारा के अनुसार अभियोजन के लिए साक्ष्य को बताया गया है।

(1) ऐसे नियत तारीख पर न्यायाधीश ऐसा सब साक्ष्य लेने के लिए अग्रसर होगा जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाए।

(2) न्यायाधीश, स्वविवेकानुसार, किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा तब तक के लिए, जब तक किसी अन्य साक्षी या साक्षियों की परीक्षा न कर ली जाए, आस्थगित करने की अनुज्ञा दे सकता है या किसी साक्षी को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षा के लिए पुनः बुला सकता है।

धारा 232

इस धारा के अनुसार दोषमुक्ति को बताया गया है।

यदि सम्बद्ध विषय के बारे में अभियोजन का साक्ष्य लेने के लिए  अभियुक्त की परीक्षा करने और अभियोजन और प्रतिरक्षा को सुनने के पश्चात् न्यायाधीश का यह विचार है कि इस बात का साक्ष्य नहीं है।  कि अभियुक्त ने अपराध किया है तो न्यायाधीश दोषमुक्ति का आदेश अभिलिखित करेगा।

धारा 233

इस धारा के अनुसार अभियुक्त को दोष मुक्त नहीं किया जाता है । इस धारा मे अभियुक्त को प्रतिरक्षा का अधिकार दिया जाता है।

इसके अंतर्गत अभियुक्त की प्रतिरक्षा प्रारंभ की जाती है तथा उसे लिखित कथन देने के लिए या फिर कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज चीज पेश करने को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी करने के लिए आवेदन करता है तो न्यायधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा।  परंतु यदि न्यायाधीश को लगता है कि ऐसी आदेशिका न्यायलय का समय नष्ट करने और न्याय में विलंब के लिए जारी करवाई जा रही है । तो वह आदेशिका जारी नहीं करेगा।

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इसी प्रकार का एक वाद मध्य प्रदेश राज्य बनाम बद्री यादव के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है।  जिसके अंतर्गत अभियोजन के साक्षी के रूप में परीक्षण किए गए गवाहों को बचाव पक्ष की साक्षी के रूप में सन्निहित करके उनका बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षण किया जा सकें।

धारा 223 दंड प्रक्रिया संहिता में अभियुक्त द्वारा बचाओ प्रारंभ करने संबंधी प्रावधान हेतु धारा 311 में ऐसे साक्ष्यों को जिनका परीक्षण हो चुका है । उनका परीक्षण किए जाने के बारे में उपबंद है लेकिन अभियोजन के साक्ष्यों को बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षण करने संबंधी कोई प्रावधान नहीं है।

धारा 234

इस धारा के अनुसार एक अभियुक्त को अपनी पसंद के अधिवक्ता द्वारा प्रतिरक्षित (डिफेंड) किए जाने का अधिकार है। यह बताया गया है।

इस मामले में लोक अभियोजक अपनी बहस प्रस्तुत करता है और अभियुक्त या उसका अधिवक्ता उत्तर देने का हकदार होगा परंतु जहां अभियुक्त या उसका प्लीडर कोई विधि का प्रश्न उठाता है तो अभियोजन पक्ष न्यायाधीश की आज्ञा से ऐसे विधि प्रश्नों पर अपना निवेदन कर सकता है।

जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में इसको बताया गया है की अभियुक्त द्वारा प्रश्न दंडादेश के बारे में ना सुने जाने के पूरक आधार के रूप में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था परंतु चुकी न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार कर लिया था इसलिए इस बिंदु पर प्रश्न किए जाने का औचित्य नहीं था।

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धारा 235

इस धारा के अनुसार दोषमुक्ति या दोषसिद्धि का निर्णय को बताया गया है।
(1) बहस और विधि-प्रश्न (यदि कोई हो) सुनने के पश्चात् न्यायाधीश मामले में निर्णय देगा।

(2) यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया जाता है तो न्यायाधीश, उस दशा के सिवाय जिसमें वह धारा 360 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करता है दंड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनेगा और तब विधि के अनुसार उसके बारे में दंडादेश देगा।

कमलाकार नंदराम भावसार बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में अभियुक्त को धारा 235 (2) के अधीन दंड के प्रश्न में सुने जाने का समुचित अवसर प्रदान किए जाने के पश्चात ही दंडिस्ट किया गया था परंतु उसे दिए गए दंड के विरुद्ध सुने जाने का अवसर नहीं दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया कि अभियुक्त का प्रतिप्रेषण सदैव आज्ञापक नहीं होता है क्योंकि एक अपवाद है ना कि सामान्य नियम।

तथा एक और वाद मे इसको स्पस्ट किया गया है ।

शिवाजी दयाशंकर बनाम महाराष्ट्र राज्य 2009 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि दंड प्रणाली का मूल उद्देश्य समाज को अपराधियों से संरक्षित करना तथा उन लोगों के भीतर भय का संचरण करना होता है। जो किसी अपराध को करना चाहते है। यदि दंड की प्रणाली को ऐसा बनाया जाए जिससे अपराधियों के भीतर से दंड के प्रति कोई भय ही ना रहे तो सारी न्याय प्रणाली भ्रष्ट हो जाएगी तथा किसी भी दंड प्रणाली का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा तथा समाज के लिए एक गंभीर घटना होगी उसके अत्यंत बुरे दुष्परिणाम होंगे। धारा 235 उपधारा(2) के अंतर्गत दोष सिद्ध होने पर न्यायधीश दंड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनता तो है परंतु दंड उसे विधि के अनुसार ही दिया जाएगा, यह अधिकारपूर्वक नहीं मांगा जा सकता कि अभियुक्त जोर देकर दंड को कम करवाएं।

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