(सीआरपीसी) दंड प्रक्रिया संहिता धारा 321   से धारा 325 तक का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 320  तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं
नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने में आसानी होगी।

धारा 321

 इस धारा मे अभियोजन को वापस लेना बताया गया है । –

जब किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधों में से किसी एक या अधिक के बारे में जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है। तो  न्यायालय की सम्मति से वापस ले सकता है और ऐसे वापस लिए जाने पर

(क) यदि वह आरोप विरचित किए जाने के पहले किया जाता है तो अभियुक्त ऐसे अपराध या अपराधों के बारे में उन्मोचित कर दिया जाएगा;

(ख) यदि वह आरोप विरचित किए जाने के पश्चात् या जब इस संहिता द्वारा कोई आरोप अपेक्षित नहीं है. तब किया जाता है तो वह ऐसे अपराध या अपराधों के बारे में दोषमुक्त कर दिया जाएगा;

परन्तु जहां-

(i) ऐसा अपराध किसी ऐसी बात से संबंधित किसी विधि के विरुद्ध है जिस पर संघ को कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, अथवा

(ii) ऐसे अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अधीन दिल्ली विशेष पुलिस द्वारा किया गया है, अथवा

(iii) ऐसे अपराध में केन्द्रीय सरकार को किसी सम्पत्ति का दुर्विनियोग, नाश या नुकसान अन्तर्गस्त है, अथवा

(iv) ऐसा अपराध केन्द्रीय सरकार की सेवा में किसी व्यक्ति द्वारा किया गया है, जब वह अपने पदीय कर्तव्यों के

निर्वहन में कार्य कर रहा है या कार्य करना तात्पर्यित है, और मामले का भारसाधक अभियोजक केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है, तो वह जब तक केन्द्रीय सरकार द्वारा उसे ऐसा करने की अनुज्ञा नहीं दी जाती है, अभियोजन को वापस लेने के लिए न्यायालय से उसकी सम्मति के लिए निवेदन नहीं करेगा तथा न्यायालय अपनी सम्मति देने के पूर्व, अभियोजक को यह निदेश देगा कि वह अभियोजन को वापस लेने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा दी गई अनुज्ञा उसके समक्ष पेश करे।

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धारा 322

इस धारा के अनुसार जिन मामलों का निपटारा मजिस्ट्रेट नहीं कर सकता उनमें प्रक्रिया को बताया गया है । –

(1) यदि किसी जिले में किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपराध की किसी जांच या विचारण के दौरान उसे साक्ष्य ऐसा प्रतीत होता है कि उसके आधार पर यह उपधारणा की जा सकती है कि

(क) उसे मामले का विचारण करने या विचारणार्थ सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है।  अथवा

(ख) मामला ऐसा है जो जिले के किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा विचारित या विचारणार्थ सुपुर्द किया जाना चाहिए।  अथवा

(ग) इस मामले का विचारण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाना चाहिए।  तो वह कार्यवाही को रोक देगा । ऐसे मामले की ऐसी संक्षिप्त रिपोर्ट सहित, जिसमें मामले का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। जिसमे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को या अधिकारिता वाले अन्य ऐसे मजिस्ट्रेट को, जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट निर्दिष्ट करे, भेज देगा।

(2) यदि वह मजिस्ट्रेट, जिसे मामला भेजा गया है, ऐसा करने के लिए सशक्त है, तो वह उस मामले का विचारण स्वयं कर सकता है या उसे अपने अधीनस्थ अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट को निर्देशित कर सकता है या अभियुक्त को विचारणार्थ सुपुर्द कर सकता है।

धारा 323

इस धारा के अनुसार इस  प्रक्रिया मे जब जांच या विचारण के प्रारंभ के पश्चात् मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि मामला सुपुर्द किया जाना चाहिए तो

यदि किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपराध की किसी जांच या विचारण में निर्णय पर हस्ताक्षर करने के पूर्व कार्यवाही के किसी प्रक्रम में उसे यह प्रतीत होता है कि ऐसा मामला है  जिसका विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए।  तो वह उसे इसमें इसके पूर्व अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन उस न्यायालय को सुपुर्द कर देगा और तब अध्याय 18 के उपबंध ऐसी सुपुर्दगी को लागू होंगे।

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धारा 324

इस धारा के अनुसार सिक्के, स्टाम्प विधि या सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों के लिए तत्पूर्व दोषसिद्ध व्यक्तियों का विचारण के बारे मे बताया गया है। –

(1) जहाँ कोई व्यक्ति भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किए जा चुकने पर उन अध्यायों में से किसी के अधीन तीन वर्ष या अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए पुनः अभियुक्त है, और उस मजिस्ट्रेट का, जिसके समक्ष मामला लंबित है, समाधान हो जाता है कि यह उपधारणा करने के लिए आधार है कि ऐसे व्यक्ति ने अपराध किया है तो वह उस दशा के सिवाय विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजा जाएगा या सेशन न्यायालय के सुपुर्द किया जाएगा, जब मजिस्ट्रेट मामले का विचारण करने के लिए सक्षम है और उसकी यह राय है कि यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया तो वह स्वयं उसे पर्याप्त दंड का आदेश दे सकता है।

(2) जब उपधारा (1) के अधीन कोई व्यक्ति विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है या सेशन न्यायालय को सुपुर्द किया जाता है तब कोई अन्य व्यक्ति, जो उसी जांच या विचारण में उसके साथ संयुक्ततः अभियुक्त है, वैसे ही भेजा जाएगा या सुपुर्द किया जाएगा जब तक ऐसे अन्य व्यक्ति को मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, धारा 239 या धारा 245 के अधीन उन्मोचित न कर दे।

धारा 325

इस धारा के अनुसार ऐसे  प्रक्रिया  बताई गयी है जब मजिस्ट्रेट पर्याप्त कठोर दंड का आदेश नहीं दे सकता–

(1) जब कभी अभियोजन और अभियुक्त का साक्ष्य सुनने के पश्चात् मजिस्ट्रेट की यह राय है कि अभियुक्त दोषी है और उसे उस प्रकार के दंड से भिन्न प्रकार का दंड या उस दंड से अधिक कठोर दंड, जो वह मजिस्ट्रेट देने के लिए सशक्त है, दिया जाना चाहिए अथवा द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट होते हुए उसकी यह राय है कि अभियुक्त से धारा 106 के अधीन बंधपत्र निष्पादित करने की अपेक्षा की जानी चाहिए तब वह अपनी राय अभिलिखित कर सकता है और कार्यवाही तथा अभियुक्त को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को, जिसके वह अधीनस्थ हो, भेज सकता है।

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(2) जब एक से अधिक अभियुक्तों का विचारण एक साथ किया जा रहा है और मजिस्ट्रेट ऐसे अभियुक्तों में से किसी के बारे में उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करना आवश्यक समझता है तब वह उन सभी अभियुक्तों को, जो उसकी राय में दोषी हैं. मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेज देगा।

(3) यदि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसके पास कार्यवाही भेजी जाती है, ठीक समझता है तो पक्षकारों की परीक्षा कर सकता है और किसी साक्षी को, जो पहले ही मामले में साक्ष्य दे चुका है, पुनः बुला सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है और कोई अतिरिक्त साक्ष्य मांग सकता है और ले सकता है और मामले में ऐसा निर्णय, दंडादेश या आदेश देगा, जो बह ठीक समझता है और जो विधि के अनुसार है।

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