जैसा कि हम सबको पता है कि भारत में संवैधानिक मुद्दों को हल कर निकालने के लिए सार और तत्वों के सिद्धांत का प्रयोग करते हैं यह शुरुआती सिद्धांतों में से एक है। यह इस बात पर जोर देता है कि यह एक प्राथमिक विषय है ना कि इसके अनपेक्षित परिणाम के साथ ही किसी भी चीज के लिए सारे या वास्तविक प्रकृति को यह संदर्भित करता है जबकि तत्व यानी कि सब्सटेंस किसी चीज का सबसे महत्वपूर्ण पहलू जो होगा उसको संदर्भित करेगा।
तत्व और सार को दर्शाने के लिए एक वाक्यांश जो कि कहता है कि सच्चा स्वभाव और चरित्र यह तत्व और सार को दर्शाने के लिए सही बैठता है इसका मतलब यह है कि एक संगी राज्य में विधाई शक्तियों के संवैधानिक परिसीमन यानी कि डेलिटेशन का उल्लंघन इस अवधारणा का विषय बनाता है। न्यायालय ने यह तय करता है कि क्या दावा की गई जो घुसपैठ है वह सिर्फ आकस्मिक है या फिर महत्वपूर्ण भी है।
इसके निर्माण कम मुख्य उद्देश्य होता है कि यह अधिनियम की विषय वस्तु का मूल्यांकन करके जो भी विधाई शक्तियां हैं उनके पूर्ण एकाधिकार को रोके और फिर यह भी निर्धारित करें कि कौन सी सूची विशिष्ट विषय वस्तु के अंतर्गत आती है।
इस सिद्धांत की उत्पत्ति कनाडा में कुछ इंग बनाम डिफ्यू के मामले में देखी गई थी तब से यह भारत में फैल गई यहां पर इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ जिसके माध्यम से भारत का संविधान केंद्र और राज्यों के बीच में विधाई शक्तियों के दायरे को विभाजित करता है।
पिथ और तत्व के सिद्धांत में किसी चीज का जो सबसे महत्वपूर्ण घटक है जहां उसका आवश्यक सा रहता है उस के रूप में इस को परिभाषित किया गया है।
यह सिद्धांत यह भी बताता है कि अपने-अपने क्षेत्र में चाहे वह राज्य हो या फिर संग हो उनकी जो विधायिका है उनका सर्वोच्च बनाया जाता तथा उन्हें दूसरों के लिए निर्धारित क्षेत्रों में अतिक्रमण नहीं करना।
डॉक्ट्रिन आफ पीठ एंड सब्सटेंस सिद्धांत को लागू करने की मुख्य वजह है आकस्मिक प्रभाव के बजाय विधायकी कानून द्वारा बनाए गए कानून के वास्तविक सार को निर्धारित करें तथा लागू किया जाना चाहिए।
इस सिद्धांत का उपयोग तक किया जाता है जब एक निश्चित अधिनियम बनाने के लिए विधायिका का अधिकार अलग-अलग सूचियों के अंतर्गत आता है और अदालत को उसके लिए कानून की सार की जांच करनी होती है।
इसमें केंद्र और राज्य में से एक दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण कोई एक करता रहता है जिसको कि न्यायालय के द्वारा सार और तत्व के सिद्धांत लागू किया जाता है।
यदि मूल रूप से हम देखे तो सार अर्थात विधान का वास्तविक उद्देश्य क्या है विधायिका की छमता के भीतर किसी विषय से संबंधित है जिसे इसे अधिनियमित किया है तो फिर इसके अंतर्विरोध माना जाना चाहिए हालांकि एक सहयोग से उन मामलों पर अतिक्रमण कर सकता है जो कि विधायिका की छमता के बाहर है।
Prafull Kumar Mukherjee banaam Bank of Khulna
इस केस में यह बताया गया था कि पृवी काउंसिल ने इस सिद्धांत को प्रफुल्ल कुमार बनर्जी बनाम बैंक आफ खुलना में लागू किया था।
इस मामले में राज्य जो है वह विधान मंडल द्वारा अधिनियम 1946 के बंगाल साहूकार अधिनियम को इस तर्क के साथ चुनौती दी थी कि कानून के कुछ हिस्सों में वचन पत्र को एक केंद्रीय विषय माना जाता है।
काउंसिल ने विवादित कानून की वैधता को बरकरार रख लेते हुए बंगाल की मनी लेंडर्स एक्ट राज्य के विषय में साहूकारों और धन उधार देने से संबंधित एक कानून है भले ही यह सहयोग से प्रॉमिस भी नोट पर एक केंद्रीय विषय है।
मुंबई राज्य बनाम बलसारा ए आई आर 1951
इस मामले में मुंबई मध्य निषेध अधिनियम जिसके द्वारा राज्य में मादक द्रव्य को खरीदने तथा उसको रखने को निषेध किया गया था कि संवैधानिक ता को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह संघ सूची में वर्णित विषय जो कि मादक द्रव्य के आयात और निर्यात पर अतिक्रमण करता है क्योंकि मादक द्रव्य के क्रय विक्रय और उपयोग को रोकने से उसके आयात निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
इस बाद में उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को व्रत अभी निर्धारित किया क्योंकि उसके अनुसार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्य सूची के विषय से संबंधित था जो कि संघ सूची के विषय से संबंधित नहीं था।