भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार धारा 31 से 35 तक का अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे हमने भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार धारा 30  तक का अध्ययन  किया था अगर आप इन धाराओं का अध्ययन कर चुके है।  तो यह आप के लिए लाभकारी होगा ।  यदि आपने यह धाराएं  नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी।

धारा 31 –

इस धारा के अनुसार संस्कृति निश्चिायक सबूत नहीं होती  हैं। परंतु यह विबन्ध कर सकती हैं। इसके अनुसार स्वीकृतियां जो की  स्वीकृत विषयों का निश्चायक सबूत नहीं होती है।  किन्तु एतस्मिन् पश्चात् अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन विबन्ध के रूप में प्रवर्तित हो सकेंगे।

धारा 32 –

इस धारा के अनुसार मृत्युकालिक कथन का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार   मृत्युकालिक कथन को साक्ष्य के अंदर अधिकारिता प्रदान  दी गई है। साक्ष्य अधिनियम में सुसंगत तथ्य क्या होंगे  इसमे ही धारा 32 का भी समावेश है। इस धारा के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कोई भी कथन मृत्युकालिक कथन है । तो वह कथन  सुसंगत माना जाएगा।

दर्शन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में यह  कहा गया कि मृत्युकालिक घोषणा के आधार पर दोषसिद्धि के लिए कथनों को इतना अंत: विश्वसनीय होना अपेक्षित है।  जिस पर पूरा विश्वास दिलाया जा सके।

केपी मणि बनाम तमिलनाडु राज्य (2006) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ मरने से तुरंत पहले के बयान के आधार पर ही  एकमात्र आधार मान कर  दोषी ठहराया जा सकता है।  लेकिन यह विश्वसनीय होना चाहिए की  मृत्युकालिक कथन का कोई फॉर्मेट नहीं होता है। और विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में मृत्युकालिक कथन के निश्चित प्रारूप (फॉर्मेट) के बारे में सवाल कई बार उठता रहता है।  

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 मृत्युकालिक कथन मौखिक हो सकता है। और यह कथन लिखित हो सकता है।   इसका अस्तित्व या इसको मरने वाले व्यक्ति को सुनाने और विस्तार से इसे समझाने का मुद्दा नहीं उठाया जा सकता है।

 गणपत लाड और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युकालिक कथन का कोई निश्चित फॉर्मेट नहीं होने की बात मानी गयी है।

धारा 33-

इस धारा के अनुसार किसी भी साक्ष्य में कथित तथ्यों की सभ्यता को प्रश्चात्वर्ती कार्यवाही में साबित करने के लिए उस साक्ष्य की सुसंगति होना आवश्यक होता है।ऐसे साक्ष्य जो किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही के अंतर्गत  या किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही में  विधि द्वारा उसे लेने के लिए प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष दिया है। तो  उन तथ्यों की सत्यता को जो उस साक्ष्य में कथित है।

या फिर  किसी पश्चातवर्ती न्यायिक कार्यवाही  में या उसी न्यायिक कार्यवाही के आगामी प्रक्रम में साबित करने के प्रयोजन के लिये तब सुसंगत है।  जब साक्षी मर गया है या मिल नहीं सकता है। तो ऐसे दशा में जब वह साक्ष्य देने के लिए असमर्थ है । या प्रतिपक्षी द्वारा उसे पहुँच के बाहर कर दिया गया है।  अथवा यदि उसकी उपस्थिति इतने विलम्ब या व्यय के बिना भी जितना कि मामले को परिस्थितियों में न्यायालय अयुक्तियुक्त समझता है। यदि  अभिप्राप्त नहीं की जा सकती।

परंतु वह तब जब कि वह कार्यवाही उन्हीं पक्षकारों या उनके हित प्रतिनिधियों के बीच में रहता है। उस समय  प्रथम कार्यवाही में प्रतिपक्षी को प्रतिरक्षा का अधिकार और अवसर प्रदान किया गया है । उस समय  विवादित प्रश्न मे कोई कार्यवाही जो की गयी हो वह वही थे जो द्वितीय कार्यवाही में हैं।

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स्पष्टीकरण- दाण्डिक विचारण या जांच इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत अभियोजक और अभियुक्त के बीच कार्यवाही की तरह मानी  जायेगी।

 धारा 34-

इस धारा मे यह बताया गया है कि लेखा-पुस्तकों मे की गयी प्रविष्टियां कब सुसंगत है। इस धारा के अनुसार कारबार के अनुक्रम में नियमित रूप से रखी गई कोई लेखा-पुस्तकों की प्रविष्टियां, जिनके अंतर्गत वे प्रविस्टीया सम्मलित है।जो इलैक्ट्राॅनिक रूप में रखी गई हो या फिर जब कभी वे ऐसे विषय का निर्देश करती हैं। जिसमें न्यायालय को जाँच करनी है । तब वह सुसंगत है।

किन्तु अकेले ऐसे कथन ही किसी व्यक्ति को दायित्व से भारित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं होंगे।उदाहरण- राम पर श्याम1,000 रुपयों के लिए वाद लाता है और उपनी लेखा-बहियों की वे प्रविष्टियां दर्शित करता है, जिनमें श्यामको इस रकम के लिए उसका ऋणी दर्शित किया गया है। ये प्रविष्टियां सुसंगत हैं।किन्तु ऋण साबित करने के लिए अन्य साक्ष्य बिना पर्याप्त नहीं है। 

धारा 35-

इस धारा के अनुसार कर्तव्य पालन में की गई लोक अभिलेख यानी की[इलैक्ट्रानिक अभिलेख] की प्रविष्टियों की सुसंगति को बताया गया है। 
इसके अनुसार जबकिसी लोक या अन्य राजकीय पुस्तक, रजिस्टर या ऐसेअभिलेख या इलैक्ट्रानिक अभिलेख जिसमे की गई प्रविष्टि। जो किसी विवाद्यक या सुसंगत तथ्य का कथन को प्रस्तुत करती है।

और किसी लोक सेवक द्वारा अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में या उस देश की, जिसमें ऐसी पुस्तक ya रजिस्टर या अभिलेख या इलैक्ट्रानिक अभिलेख रखा जाता है। जो की किसी विधि द्वारा विशेष रूप से व्यादिष्ट कर्तव्य के पालन में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की गई है। तो वह स्वयं सुसंगत तथ्य है।

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