जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे हमने भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार धारा 35 तक का अध्ययन किया था अगर आप इन धाराओं का अध्ययन कर चुके है। तो यह आप के लिए लाभकारी होगा । यदि आपने यह धाराएं नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी।
धारा 42 –
इस धारा के अनुसार धारा 41 से अलग वर्णित निर्णयों, आदेशों या डिक्रियों की सुसंगति और प्रभाव को बताया गया है। जिसके अनुसार वे निर्णय, आदेश या डिक्रियाँ जो धारा 41 में वर्णित से भिन्न हैं। यदि वे जांच में सुसंगत लोक प्रकृति की बातों से संबंधित हैं। तो वे सुसंगत मानी गयी हैं। किन्तु ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्रियाँ उन बातों का निश्चायक सबूत नहीं हैं जिनका वे कथन करती हैं।
उदाहरण –
अभय अपनी भूमि पर अतिचार के लिए जनी पर वाद लाता है। जनी उस भूमि पर मार्ग के लोक अधिकार का अस्तित्व अभिकथित करता है जिसका अभय प्रत्याख्यान करता है।
अभय द्वारा रश्मि के विरुद्ध उसी भूमि पर अतिचार के लिए वाद मे जिसमें रश्मि ने उसी मार्गाधिकार का अस्तित्व अभिकथित किया था। प्रतिवादी के पक्ष में डिक्री का अस्तित्व सुसंगत है। किन्तु वह इस बात का निश्चायक सबूत नहीं है कि वह मार्गाधिकार अस्तित्व में है।
धारा 43 –
इस धारा के अनुसार धारा 40, 41 और 42 में वर्णित से भिन्न निर्णय कब सुसंगत हैं यह बताया गया है।
इसके अनुसार धारा 40, 41 और 42 में वर्णित से भिन्न निर्णय, आदेश या डिक्रियां विसंगत हैं । जब तक कि ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व विवाद्यक तथ्य न हो या फिर वह इस अधिनियम के किसी अन्य उपबन्ध के अन्तर्गत सुसंगत न हो।
उदाहरण –
जय और वीरू किसी अपमान-लेख के लिए जो उनमें से हर एक पर लांछन लगाता है। जिया पर पृथक्-पृथक् वाद लाते हैं। हर एक मामले में जिया कहती है कि वह बात, जिसका अपमालेखीय होना अभिकथित है। सत्य है और परिस्थितियां ऐसी हैं कि वह अधिसम्भाव्यतः या तो हर एक मामले में सत्य है या किसी में नहीं।
जिया के विरुद्ध जय इस आधार पर किजिया अपनी न्यायोचित साबित करने में असफल रही नुकसानी की डिक्री अभिप्राप्त करती है। यह तथ्य वीरू और जिया के बीच विसंगत है।
धारा 44 –
इस धारा के अनुसार निर्णय अभिप्राप्त करने में कपट या दस्संधि अथवा न्यायालय की अक्षमता साबित की जा सकेगी यह बताया गया है। इसके अनुसार वाद या अन्य कार्यवाही का कोई भी पक्षकार यह दर्शित कर सकेगा कि कोई निर्णय, आदेश या डिक्री जो की धारा 40, 41 या 42 के अधीन सुसंगत है ।तथा जो प्रतिपक्षी द्वारा साबित की जा चुकी है। ऐसे निर्णय न्यायालय द्वारा दी गई थी जो उसे देने के लिए अक्षम था या फिर वह निर्णय कपट या दुस्संधि द्वारा अभिप्राप्त की गई थी।
धारा 45 –
इस धारा के अनुसार जब न्यायालय को किसी कार्यवाही में किसी कम्प्युटर साधन या फिर किसी अन्य इलेक्ट्रोनिक या अंकीय रूप में पारेषित या भंडारित किसी सूचना से संबंधित किसी विषय पर कोई राय देनी होती है तब सूचना प्रौधोगिकी अधिनियम, 2000 धारा 79 क में निर्दिष्ट इलेक्ट्रोनिक साक्ष्य के परीक्षक की राय सुसंगत तथ्य होता है।
राम दास एवं अन्य बनाम राज्य सचिव एवं अन्य AIR 1930 All 587 के मामले में यह बताया गया है कि “विशेषज्ञ” शब्द का एक विशेष महत्व है। और किसी भी गवाह को अपनी राय व्यक्त करने की अनुमति तब तक नहीं दी जाती है । जब तक कि वह धारा 45, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत “विशेषज्ञ” न हो या कुछ विशेष मामलों में किसी विशेष कानून द्वारा उसे ऐसी राय व्यक्त करने की अनुमति न दी गई हो।
विशेषज्ञों की राय स्वीकार्य तभी बनती है। जब अदालत को विदेशी कानून, या विज्ञान, या कला, या हस्तलिपि या अंगुली चिन्हों की अनन्यता या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के बारे में अपनी कोई राय बनानी होती है। जो ऐसी राय अदालत द्वारा चूँकि स्वयं से नहीं बनायीं जा सकती है। क्योंकि यह सभी विषय एक विशिष्ट कौशल एवं पर्याप्त ज्ञान की मांग रखते हैं। इसलिए अदालत द्वारा किसी विशेषज्ञ की मदद ली जाती है।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम जय लाल एवं अन्य (1999) के मामले में कहा गया है। एक गवाह के सबूत को एक विशेषज्ञ के रूप में स्वीकारने के लिए यह आवश्यक होता है। कि ऐसे व्यक्ति ने उस विषय पर जिसपर वो राय दे रहा हैउस पर एक विशेष अध्ययन किया है या उस विषय में उसने एक विशेष अनुभव प्राप्त किया है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस धारा के अंतर्गत ऐसा कुछ भी नही बताया गया है कि किस प्रकार के लोग विशेषज्ञ हो सकते हैं। इसलिए इस लेख में बताये गए तमाम निर्णयों की मदद से हम यह तय कर सकते हैं कि एक विशेषज्ञ कौन कहलायेगा।
एक विशेषज्ञ वह गवाह है जिसने उस विषय पर जिसके बारे में वह गवाही दे रहा है। उस विषय का विशेष अध्ययन, अभ्यास या अवलोकन किया है। यह जरुरी है कि ऐसे व्यक्ति को उस विषय का विशेष ज्ञान होना चाहिए।
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