विधि शास्त्र के अनुसार प्रशासनिक न्याय क्या होता है?

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे इससे संबन्धित कई पोस्ट का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की पोस्ट समझने मे आसानी होगी।

प्रशासनिक न्याय को समझने से पहले हम यह जान ले की न्याय क्या होता है।
“न्याय उन मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का जोड़ है। जिनके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार तथा सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। जिन्हें समाज उचित मानता है।”

“न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है। तथा समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।”

अब हम देखते है की प्रशासनिक न्याय क्या होता है।

प्रशासनिक न्याय से संबंध उस व्यवस्था और सुझाव से है जिसके अंतर्गत प्रशासनिक अधिकारियों को कानून के द्वारा इस बात का अधिकार मिलता है। कि वे निजी मामलों का और सरकारी अधिकारियों के बीच उठने वाले सरकारी मामलों का निपटारा कर सकें।

यह प्रथा पहले से थी पर 20वीं सदी में हुए प्रथम तथा द्वितीय महायुद्धों के बाद यह और अधिक प्रचलित हो गयी । तथा देश की स्वाधीनता के बाद जब कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल आया तब इसको और विकास मिला और समाज ने इसको समाजवादी समाज के ढाँचे का रूप राष्ट्रीय लक्ष्य के तौर पर अपनाया।

प्रशासकीय न्याय भारत में एक उपयोगी कार्य कर रहा है। विधिव्यवस्था की रक्षा के लिये यह आवश्यक नहीं है। कि केवल सामान्य न्यायालयों को ही मामलों के निर्णय का एकाधिकार प्राप्त हो। प्रशासकीय न्यायालयों का सहारा लिए बिना आज का राज्यतंत्र अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह भलीभाँति नहीं कर सकता।और यही वजह है की आज इसका विकास तेजी से हो रहा है।

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प्रशासनिक न्‍यायाधिकरण अधिनियम के 1985 में अधिनियमन ने व्‍यथित सरकारी कर्मचारियों को न्‍याय देने के क्षेत्र में एक नया अध्‍याय जोड़ा जिसमे प्रशासनिक न्‍यायाधिकरण का उद्गव संविधान के अनुच्‍छेद 323-ए से हुआ है।

जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार कोऔर केंद्रतथा राज्‍यों के कार्य संचालन के संबंध में लोक सेवाको पदों पर नियुक्‍त व्‍यक्तियों की भर्ती तथा सेवा शर्तों के संबंध में विवादों और शिकायतों के निपटारे संबन्धित संसद द्वारा पारित अधिनियम के अंतर्गत प्रशासनिक न्‍यायाधिकरण स्‍थापित करने की शक्ति प्राप्‍त हुई।

प्रशासनिक न्‍यायाधिकरण अधिनियम 1985 में निहित प्रावधानों के अनुसरण में स्‍थापित प्रशासनिक न्‍यायाधिकरणों को इसके अंतर्गत आने वाले कर्मचारियो की सेवा संबंधी मामलों पर मूल क्षेत्राधिकार प्राप्‍त है।

प्रशासनिक न्‍यायाधिकरण का क्षेत्राधिकार इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले सभी वादकारी के सेवा संबंधी मामलों पर निश्चित है। यह अधिनियम इतना सरल और सहज है कि इसके समक्ष शिकायतकर्ता स्‍वयं अपनी पैरवी कर सकता है। तथा शासन अपने मामले विभागीय अधिकारियों अथवा वकील के माध्‍यम से प्रस्‍तुत कर सकता है। इस प्रकार न्‍यायाधिकरण का उद्देश्‍य वादकर्ताओं को तुरंत तथा सस्‍ता न्‍याय प्रदान करना है।

इस प्रकार हम कह सकते है की प्रशासनिक निर्णय जिसको हम अंतिम निर्णय लेने की शक्ति भी कह सकते है। जो की शक्ति विभाग या अन्य प्राधिकरण के द्वारा निहित होता है। यह नियमित अदालतों के बजाय प्रशासनिक एजन्सि के द्वारा निहित होता है। यह प्रक्रतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते है।
डिमांक के अनुसार – “प्रशासकीय अधिनिर्णय एक प्रक्रिया है। एक ऐसे प्रक्रिया जिसके द्वारा प्रशासकीय एजेन्सीयां अपने काम के दौरान उत्पन्न ऐसे मामलों का निपटारा करती है। जिसमें कानून का प्रश्न निहित होता है।”

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एल. डी. व्हाइट के अनुसार – “प्रशासनिक अधिनिर्णय का अर्थ होता है। प्रशासकीय अभिकरण द्वारा कानून तथा तथ्य के आधार पर किसी गैर सरकारी पक्ष से संबंधित विवाद की जांच और उस पर निर्णय ।”

1985 के बाद न्यायाधिकरणों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। तथा इन न्यायाधिकरणों ने सामान्य न्यायिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली को बाधित किया है।
प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985 के लागू होने के बाद से संसद ने उच्च न्यायालयों तथा दीवानी न्यायालयों के महत्त्वपूर्ण न्यायिक कार्य अपनी देख-रेख में अर्द्धन्यायिक निकायों को स्थानांतरित कर दिये हैं।जिसके संबंध मे विधि मंत्रालय ने भी यह कहा है कि इन केंद्रीय न्यायाधिकरणों में से कई यथोचित ढंग से तथा सर्वोत्तम क्षमता से कार्य नही होपा रहा है।
यद्यपि न्यायाधिकरणों की स्थापना त्वरित तथा विशेष न्याय प्रदान करने के लिये की गई थी, परंतु न्यायाधिकरणों के निर्णय के विरुद्ध उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में अपीलें की जा सकती है। जो कि न्यायिक व्यवस्था को अवरुद्ध कर रहा हो।

प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के प्रमुख संरक्षण होते है।

  1. संगठनात्मक संरक्षण
  2. प्रक्रियात्मक संरक्षण
  3. न्यायिक संरक्षण

प्रशासनिक न्याय के कारण –

यह अन्य न्यायालयों की महंगी और जटिल प्रक्रिया से छुटकारा दिलाता है। और न्यायाधिकरणों की सस्ती एवं संक्षिप्त प्रक्रिया से अवगत कराता है।
इसके वजह से विशेषज्ञों का निर्णयों में सहयोग लेना संभव हो पाता है।
यह सामाजिक नीति को लागू करने में उपयोगी होता है।
इसमे वादी स्वयं अपना वाद रख सकता है।
यह रूढ़िवादी न्यायाधीश के विपरीत प्रगतिशील प्रशासकीय निर्णयलेने मे सहायक होता है।

प्रशासकीय न्यायालय के प्रकार हैं:

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स्वतंत्र प्रशासकीय न्यायालय –
सामान्य न्यायालयों की भांति ही न्यायिक प्रकृति के है,। जैसे आपात कालीन ”बोर्ड ऑफ कोर्ट अपील”, ”कोर्ट ऑफ क्लैम” आदि शामिल है ।

विशेष प्रशासकीय न्यायालय –
ये संस्थाएं प्रशासकीय प्रकृति की होती है। जैसे पेटेंट अधिकार की अपील परिषद ।कॉपी राइट की अपील परिषद

नियामिकीय –
आयोग ये मिश्रित प्रकृति के कार्य करते हैं । जैसे अंतर्राज्यीय और वाणिज्यिक आयोग, फेडरल ट्रेड कमीशन ।

लाइसेसिंग अथॉरिटी –
समुद्र निरीक्षण नौचालन ब्यूरो, असैनिक विमान प्राधिकरण आदि।

लाभ-

(1) सस्ता और शीघ्र न्याय की व्यवस्था
सामान्य न्यायालयों के वितरित बहुत से प्रशासकीय न्यायालयों में न तो फीस लगती है। और न वकील की जरूरत होती है। प्रकार इनकी सरल न्याय को सुनिश्चित करती हैं ।

(2) लोचशीलता
प्रशासनिक न्यायाधिकरण मे न तो वे अपने निर्णयों से बंधे होते है। ना ही सामान्य कानूनों को मार्ग में बाधक बनने देता है । साक्ष्य के उनेक अपने सरल नियम होते हैं । वे परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल सकते हैं ।

(3) प्रगतिशील दृष्टिकोण
सामान्य न्यायालयों के रूढ़िवादी दृष्टिकोण के विपरीत प्रशासनिक न्यायालयों का दृष्टिकोण प्रगतिशील होता है । वे परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था के साथ चलता रहता है।

(4) विशिष्ट मामलों का उपयुक्त समाधान
प्रशासनिक न्यायालयों के निर्णायक प्रशिक्षित अनुभवी और विशेषज्ञ के द्वारा होता है तथा यह व्यापार, उद्योग, इंजिनियरिंग, स्वास्थ्य जैसे मामलों में उपयुक्त समाधान प्रस्तुत कर पाते हैं ।

(5) सामान्य न्यायालयों के कार्यभार को कम करना
यह बहुत से विवादों का निपटारा करने मे सझम होते है। जिससे सामान्य न्यायालयों पर कार्य का बोझ कम हो जाता है ।

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