जैसा कि आप सब को पता होगा मुस्लिम विवाह को निकाह भी कहते है। इसमे विवाह एक समझौता होता है जो दोनो लड़का और लड़की के मध्य होता है। इसमे दोनो पक्षों के मध्य आपसी सहमति होती है और दोनो तरफ से 2 -2 गवाह होते है।
जो काजी के सामने शादी कराते है। इसमे 2 प्रकार के मुस्लिम होते है।सिया और सुन्नी। दोनो के विवाह पधति लगभग एक जैसे है।
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड द्वारा मुस्लिम विवाह मे इन चार लोगो को रहना अति आवश्यक है और ये चारो एक ही स्थान पर उपस्थित होंगे। जिसमे दुल्हा,दुल्हन तथा काजी के अलावा गवाह का होना अति आवश्यक है।हमारे भारत मे हिंदू हो या मुस्लिम सभी मे यह प्रचलन चली आ रही है। कि विवाह हमेशा लड़की के घर होता है।
आज कल तो गेस्ट हाउस या होटल में होता है फिर भी प्रचलन अनुसार उसका खर्च लड़की वालो को वहन करना होता है।
मुस्लिम विधि के अनुसार विवाह मे लड़का , लड़की को अलग अलग एक पर्दा डाल कर बैठाया जाता हैं और काजी द्वारा विवाह का प्रस्ताव और स्वीकृति पर मोहर लगाई जाती है जिसमे दोनो पक्षों के गवाह भी सम्मलित होते हैं।
और मेहर की राशि का भी उसी समय निर्धारण हो जाता है। जो दुल्हे द्वारा स्त्री को दिया जाने वाला धन होता है। जिसको स्त्री यानी की दुल्हन कभी भी मांग सकती है।
यह एक प्रकार कि contract होती है जिसका उद्देश्य बच्चे पैदा करना तथा उनकी वैधता होती है। इसके कई आवश्यक तत्व है।
मुस्लिम विवाह मे ऐसा व्यक्ति जो स्वस्थ मस्तिष्क का हो और जिसने विवाह कि आयु पूरी कर ली हो । मुस्लिम विवाह मे जो 21 वर्ष मानी गयी है। या फिर अपने अभिभावक के अनुसार विवाह कर सकता है।
21वर्ष से कम आयु मे विवाह करना अपराध माना जाता है। परंतु इस प्रकार का विवाह शून्य नही माना जाता है। लड़की की उम्र 18 साल मान्य है। परंतु आपने देखा होगा मुस्लिम मे विवाह कम आयु मे ही हो जाता है।
इस प्रकार के विवाह मे प्रस्ताव और स्वीकृति होनी आवश्यक है। तथा प्रस्ताव और स्वीकृति दोनों एक ही समय मे होनी चाहिए और एक ही स्थान पर होना चाहिए।
इसमे विवाह के समय एक पुरुष और 2 स्त्री या फिर 2 पुरुष स्वस्थ मस्तिस्क के होने चाहिए जो गवाह के रूप मे होते है।
उदाहरण-
स ने द और ए के सामने ग से शादी का प्रस्ताव रखा तथा ग ने द और ए के सामने स का प्रस्ताव स्वीकार किया परंतु यह वैध विवाह नही है क्योकि प्रस्ताव और स्वीकृति एक ही समय मे नही हुई थी।
आ ने का को अपनी फैमिली के सामने शादी का प्रस्ताव दिया का ने स्वीकार कर लिया यह वैध विवाह होगा।
आ स को पत्र के द्वारा प्रस्ताव भेजता हैं स उसको 2 लोगो के बीच मे पड़ता हैं और सहमति देता हैं यह विधानिक विवाह है। मुस्लिम विवाह मे यदि कोई अवरोध आ जाता है तो वह विवाह शून्य होगा।
अब हम आपको बतायेंगे की इस विवाह मे निषेध क्या है। इसमे पुरुष चार विवाह तक कर सकता है और स्त्री एक विवाह कर सकती है। इससे ज्यादा अवैध होगा।
कोई भी अपनी माँ, दादी, पुत्री, बहन, भाई, पोत्री, बुआ, मामा ,मौसी आदि से विवाह नही कर सकता है।
कोई भी अपने पत्नी की मा, दादी और पिता के पत्नी या दूसरे बच्चे से विवाह नही कर सकता यदि करता है तो उसके बच्चे अवैध घोसित हो जायेंगे।
कोई भी पुरुष यदि 5वा विवाह करता है तो पहले 4 मे से किसी को तलाक देना होगा तभी विवाह कर सकता है।
कोई भी मुस्लिम पुरुष किसी भी किताबिया से विवाह कर सकता है जैसे इशाई, जैन, सिख आदि पर हिंदू से विवाह करने के लिए उसको धर्म परिवर्तन करना होगा । कोई इद्दत महिला है तो उससे होने वाला विवाह शुन्य होगा।
विवाह की परिकल्पनायदि कोई मुस्लिम पुरुष और महिला कई सालों से साथ रहती है तो उनका विवाह हो गया है ऐसा मान लिया जाता है। यदि कोई पुरुष और स्त्री साथ मे रहते हुए बच्चा पैदा करते हैं और पुरुष यह मानता है की बच्चा उसका है तो वह विवाह मान लिया जाता है।
यदि कोई पुरुष किसी स्त्री को अपनी पत्नी बताता है और वह उसको स्वीकार करती है तो यह विवाह मान लिया जाता है।
एक वैध विवाह के अनुसार मुस्लिम महिलाओं के अधिकारएक निश्चित स्थान होना आवश्यक है जहा पर पति पत्नी रह सके। विवाह के पश्चात सह पत्नी है तो समान रूप से प्यार और स्नेह मिलना चाहिए।
मेहर की राशि मिलनी चाहिए। मेहर 4 प्रकार की होती है। यदि मेहर की राशि पहले से निर्धारित नही है तो भी महिला मेहर की राशि मांग सकती है। यह विवाह के रूप मे लिया गया प्रतिफल होता है जो स्त्री को प्राप्त होता है।
अब हम आपको बतायेंगे कि मेहर कौन कौन सी होती है।
उल्लेखित मेहरयह मेहर की राशि लड़की की ओर से पहले या शादी के दौरान या शादी के बाद कभी भी लिया जा सकता है।
उचित मेहरयह मेहर की राशि विवाह के बाद पत्नी द्वारा जो उचित लगता है उस अनुसार मांग ली जाती है। तत्पर मेहर पत्नी द्वारा मांगे जाने पर दिया जाता है।
अस्थिगत मेहरइस मेहर की राशि को विवाह विच्छेद या मृत्यु आदि के बाद दिया जाता है। भरण पोषणआपको बता दे की मुस्लिम मे निम्न परिस्थितियों मे भरण पोषण मिल सकता हैं।
अव्यस्क बच्चे जब किसी पत्नी के बेटे को 18 साल तथा लड़की को जब तक उसकी शादी नही हो जाती पति का दायित्व बनता है कि उनका भरण पोषण करे। यदि किसी का बच्चा अपंग या कमजोर मस्तिस्क का है तो पिता को यह अधिकार है की उसका भरण पोषण करे।
बच्चे को अपने बुढे माता पिता का भरण पोषण करने का दायित्व है। एक पति को अपनी पत्नी को इला के वक्त भी भरण पोषण करना होगा लेकिन उस समय पति की मृत्यु न हो गयी हो।
पत्नी को अपने पति से भरण पोषण का अधिकार है उसके ना रहने पर उसके ससुर उत्तरदायी है।
इस प्रकार आपने मुस्लिम विवाह के बारे मे जाना आगे की जानकारी के लिए कृपया हमारी सभी पोस्ट पढ़ते रहिये और हमे सुझाव भेज कर कृतार्थ करते रहिये।