CAPITAL STRUCTURE (पूंजी संरचना) क्या होता हैं इसका क्या महत्व हैं

CAPITAL STRUCTURE (पूंजी संरचना)- कैपिटल स्ट्रक्चर से मतलब पूंजी के निर्धारण से हैं। वित्तीय प्रबंधन मे एक महत्वपूर्ण निर्णय वित्तीय ढांचे से होती हैं। इसको दो भागो में करते हैं  पहला भाग इक्विटि का होता हैं  और दूसरा भाग  उधार लिया धन, पूंजी संरचना यह होती हैं की किस तरह   एक फर्म धन का उपयोग कैसे करता हैं तथा किस तरह उसको बिज़नेस  में लगा कर उन्नति करता हैं । ऋण आदि ब्रांड के रूप में या नोट के रूप में आता हैं। जबकि इक्विटी को शेयर स्टॉक आदि के रूप में जाना जाता हैं।। कार्य को करने के लिए पूंजी इकट्ठा करने के लिए ऋण को उसका हिस्सा मानते हैं।किसी फर्म में पूंजी जब इकट्ठा करनी होती हैं तब ऋण तथा इक्विटी दोनों आती हैं ।। पूंजी संरचना का विश्लेषण करते समय लघु और दीर्घकालिक ऋण का एक कंपनी का अनुपात माना जाता है।विभिन्न प्रकार की पूंजी अलग अलग कम्पनी पर जोखिम को निर्धारित करती हैं ।। इस कारण से, पूंजी संरचना उस कम्पनी के मूल्य को भी निर्धारित करती हैं ।, और इसलिए यह विश्लेषण करने में बहुत अधिक विश्लेषण होता है कि कंपनी की सबसे जादा  पूंजी ऋण है या इक्विटी ।

पूंजी संरचना विभिन्न देनदारियो को किस अनुपात में रखना हैं उसपर निर्भर करती हैं । जिस पूंजी ढांचा में ऋण और इक्विटी का ऐसा मिश्रण हो जो पूंजीपति और अंशदाता दोनों को लाभ प्रदान कर सके वह optimum कैपिटल stucture होता हैं ।आय के अलावा भी जोखिम लेने की शक्ति, कंपनी का महत्व कम्पनी के कार्य आदि भी पूँजी-ढाँचा को प्रभावित करते हैं ।

Modigliani and miler का फाइनेंस के अनुसार अपने विचार-

पूंजी में कितनी लागत लगेगी यह कम्पनी के वित्त और कम्पनी के कार्य पर निर्भर हैं ।  सिद्धांतकारों के मुताबिक,   एक फर्म की लागत वित्त पोषण की विधि और स्तर पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में, उनके अनुसार फर्म इसको परिवर्तित कर सकती हैं  पूंजी में ऋण और इक्विटी दोनों का मिश्रण कुल लागत होता हैं ।वही दूसरी तरफआज कल के सिद्धांतकार जैसे कि Modigliani और मिलर ने कहा कि फर्म की पूंजी की कुल लागत मे  वित्त और विधि का स्टार कोई प्रभाव नही डालता वह स्वतंत्र होता हैं ।जिसको हम दूसरे शब्दों में, ऋण-इक्विटी अनुपात में परिवर्तन पूंजी की कुल लागत पर प्रभाव नही डालता हैं है। mm ने बताया हैं की पूंजी को बाजार भी कह सकते हैं ।

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Optimum capital structure-

पूंजी को इकठ्ठा करने में बाजार में ऋण का महत्वपूर्ण योगदान हैं। कंपनियों को टैक्स में छूट की वजह से भी ऋण द्वरा पूंजी रखना पसंद हैं। इंटरेस्ट देना भी टैक्स के छूट में आता हैं । इक्विटी के साथ साथ ऋण भी बिज़नेस  के लिए आवश्यक हैं दोनों के ताल मेल से बिज़नेस सुचारू रूप से चलाया जा सकता हैं ।

ऋण इक्विटी से सस्ता हैं। खासकर जब ब्याज दरें कम हैं जबकि यदि ऋण कम हैं  तो इक्विटी को वापस भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती है। वही पर जब  इक्विटी कंपनी के आज के आय को भी प्रदर्शित करती हैं। इक्विटी कम्पनी के स्वामित्व को भी दर्शाती हैं।

पूंजी की कितनी आवश्यकता पड़ेगी तथा कितनी मात्रा में इक्विटी और कितनी मात्रा में ऋण की जरुरत हैं यह तो बिज़नेस  पर निर्भर करता हैं जैसे कि यदि कोई सीजनल  हैं तो उस बिज़नेस  समय ज्यदा पूंजी की आवश्यकता होगी ।सीजन के बाद पूंजी की आवश्यकता कम होगी ।यदि कोई ऐसा बिज़नेस  हैं जिसमे जल्द ही प्रॉफिट होगा तो ऋण की मात्रा ज्यदा हो सकती हैं और जब पैसा कुछ समय या लम्बे समय के बाद मिलना हो तो इक्विटी की मात्रा ज्यदा रखना होता हैं ।

यह तभी होगा जब  पूँजी के विभिन्न साधनों की औसत लागत  कम से कम हो । आय के अतिरिक्त भी ऐसे कई साधन हैं जिसका ध्यान रखना अति आवश्यक होता हैं । जैसे कि कम्पनी पर नियन्त्रण कैसे करेंगे और पहले की तरह ही उसको नियंत्रित करने  का प्रश्न अथवा जोखिम की मात्रा  को कम करना या फिर जोखिम को न बढ़ने देना आदि । इस प्रकार उन सभी साधनों पर विचार करना होगा जो पूंजी को प्रभावित करते हैं।

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डी /इ का अनुपात का प्रयोग पूंजी अनुपात के लिए किया जाने लगा था ।

इसमें ऋण को इक्विटी द्वरा भाग देकर निकाला जाता हैं।

सभी कम्पनी ऋण और इक्विटी दोंनो को शामिल करते हैं।

कंपनिया बाहरी पूंजी या ऋण पर अधिक निर्भर होती हैं क्योकि वह आशानी से सस्ता मिल जाता हैं।

निवेशक डी / ई अनुपात से फर्म की निगरानी कर सकते हैं। यह फर्म की दशा को बताता हैं।

पूँजी-ढाँचे के महत्वपूर्ण तत्त्व  (Determinants of Capital Structure)-

आय (Income)- सभी कम्पनियों की आय की गणना अक जैसे नही की जा सकती सभी की सम्भावना अलग अलग आय पर निर्भर हैं । अलग अलग कंपनिया अलग अलग व्यवसाय के अनुसार पूंजी  कि आवश्यकता होती हैं।  कुछ व्यवसायों में आय की सम्भावनाएँ  स्पस्ट रूप से पता होती हैं ।, जबकि सभी में आय स्पस्ट नही होती हैं किसी में आय लम्बे समय बाद होती हैं तो किसी में आय किस सीमा तक होगी पता नही होता हैं।आय की प्रकृति की सम्भावनाओं के अनुसार ही पूंजी का प्रयोग कहा होगा और पूंजी का स्ट्रक्चर कैसे होगा निर्धारित  किया जाना चाहिए। पूंजी  की जिन कारको पर ध्यान देना आवश्यक है वह निम्न हैं।

निश्चितता (Certainty)

पर्याप्तता (Adequacy)

नियमितता (Regularity)

जोखिम- वित्त प्रबंधक को धन के प्रत्येक स्रोत के जोखिम मूल्य और धन के प्रत्येक स्रोत के बाजार मूल्य के बीच एक विकल्प बनाना होता है। परिणाम सभी का अलग अलग प्राप्त होता हैं ।ब्याज का लगातार भुक्तान करना तथा मूलधन की वापसी करना और समय समय पर ब्याज को बढ़ना आदि जोखिम को बढाती हैं। अत: कम्पनी की ऋण-क्षमता (Debt Capacity) का सही अनुमान  करने के बाद ही जोखिम का भी पहले से अनुमान करके कैपिटल stucture  में पूँजी के साधनों के साथ-साथ ऋण-पूँजी का अनुपात निर्धारित किया जाना चाहिए ।

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पूंजी कि लागत (cost of capital)-

पूंजी की लागत एक प्रतिशत है और इसका उपयोग अधिकतर भविष्य में लागत कितनी लगेगी और आय क्या होगा उसकी गणना करने के लिए किया जाता है। इसे नए निवेश पर अर्जित किए जाने वाले रिटर्न की  टैक्स में कटौती की दर भी माना जाता है।

व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business)- पूंजी निर्धारण के लिए व्यवसाय किस प्रकार का हैं जानना भुत आवश्यक होता हैं ।व्यवसाय के अनुसार ही पूंजी कम या जादा कि आवश्यकता होती हैं। कुछ व्यवसाय ऐसे होते है जिनमें उत्पादन एवं विक्रय हमेशा होता रहता है ।उसमे पूजी कि जादा आवश्यकता होगी ।  इसके विपरीत कुछ व्यवसाय मौसमी प्रकृति (Seasonal Nature) के होते हैं उसमे पूंजी की कम आवश्यकता होती हैं ।

परिसम्पत्तियों का ढाँचा (Assets Structure)- कुछ कम्पनियों में फिक्स्ड assests जादा होती हैं तो कुछ में करेंट assests जादा होती हैं जिसमे फिक्स्ड assests जादा  होगी उसमे इक्विटी भी जादा होगी तथा ऐसी कंपनी को ऋण प्राप्त करने में आसानी होती हैं जिसमे कर्रेंट assests जादा होगा उसमे ऋण की मात्रा जादा होगी ।वह निवेशको को कम लाभ प्रदान करेगी ।

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