आपने अगर धारा 1 से 20 तक नही पढ़ा हैं। तो कृपया पहले उसको पढ़ लीजिये। इससे आपको समझने मे आसानी होगी। यह आप CPC टैग मे जाकर देख सकते है।
अब आइये समझते है धारा 21 से 25 क्या है।
धारा 21
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 21 अधिकारिता के बारे मे बताता है।
स्थानीय सीमा क्षेत्र अधिकारिता
धन संबंधी अधिकारिता
विषय वस्तु अधिकारिता
इसमे निम्न संबंधी अधिकारिता होती है।
स्थानीय सीमा क्षेत्र अधिकारिता-
इसके अंतर्गत किसी भी कोर्ट की सीमा कहा तक है।
धन संबंधी अधिकारिता मे यह बताया गया है कि कोई कोर्ट कहा तक और कितने रुपये तक का वाद की सुनवाई कर सकता है।
विषय वस्तु संबंधी अधिकारिता –
इस प्रकार की अधिकारिता मे यह बताया गया है कि किसी भी न्यायालय की अपनी विषय वस्तु होती है। और न्यायालय उसी अनुसार कार्य करता है। कोई भी न्यायालय अपने विषय वस्तु से हटकर कार्य नही कर सकता है। जैसे फैमिली कोर्ट क्रिमिनल वाद नही सुन सकता है।
इसके अंतर्गत निस्पादन न्यायालय आता है। इसमे कोई भी न्यायालय अपना वाद दूसरे न्यायालय को भेज सकता है। और वाद सुनने के लिए अनुरोध कर सकता है।
इसके अंतर्गत एक न्यायालय के द्वारा डिक्री दिया जाता है और दूसरे न्यायालय के द्वारा उसका पालन किया जाता है। यह क्रिया निस्पादन कहलाता है।
कोई भी न्यायालय अपील, रिवीजन के द्वारा इस न्यायालय के अधिकारिता के बारे मे कोई हस्ताछेप नही कर सकता है। यह न ही उसके स्थानीय सीमा को लेकर और न ही धन संबंधी और न ही निस्पादन संबंधी वाद को लेकर कोई हस्ताछेप कर सकता है।
यदि किसी पार्टी को हस्तछेप करना होता है तो वह वाद जब न्यायालय मे चल रहा हो उसी समय कर सकता है बाद मे उसपर अधिकारिता को लेकर अपील नही कर सकते हैं।
यदि वाद निस्पादित् हो गया है तो वह अधिकारिता पर अपील कर सकते हैं।
धारा 21 A
वाद लाने के स्थान पर आच्छेप पर डिक्री को उपासत् करना
इसमे यह बताया गया है कि न्यायालय मे जब वाद चलते समय जब कोई पछकार कोई वाद के विरुध् या अधिकारिता के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया नही करता है तो वह डिक्री मिल जाने के बाद वादी या प्रतिवादी या कोई अन्य व्यक्ति उसके खिलाफ वाद दायर नही कर सकता है।
यदि कोई न्यायालय एक बार कोई डिक्री दे देता है तो अपील न्यायालय या कोई अन्य न्यायालय उसी वाद को फिर से नही सुनेगा कि उसकी अधिकारिता नही है।
पूर्व न्यायालय से आशय यहा पर उस न्यायालय से है जहा पर पहले न्याय किया गया हो और वहा डिक्री प्राप्त हुई हो।
धारा 22
जब कोई वाद एक से अधिक न्यायालय मे संस्थित किया गया है तो उसको आंत्रित् करने की शक्ति का वर्णन इसमे किया गया है।
जब कोई वाद 2 या 2 से अधिक नयायालय मे चल रहा है तो प्रतिवादी दूसरे पक्षकार से बात करके यह निश्चित करके वाद को संस्थित करेगा वह वाद के समय या उससे पहले किसी न्यायलाय को आंतरित करेगा , तथा आवेदन करेगा जिससे न्यायालय प्रतिवादी और बाकी सभी पक्षो को अपनी बात रखने का समय देगा तथा उनके अनुरूप यह तय करेगा की वाद किस न्यायालय मे चलेगा।
धारा 23
इसमे यह बताया गया है की वाद किस न्यायालय मे किया जाएगा।
जहा अधिकारिता रखने वाले एक से अधिक न्यायालय होते है तो वह सभी न्यायालय एक ही अपील के अंतर्गत आते है तो वह धारा 22 निर्धारित करेगा की आवेदनकहा किया जाएगा।
जहा अपील न्यायालय अलग अलग है परंतु सभी एक ही उच्च न्यायालय के अधीन है तो वह पर उच्च न्यायालय मे अपील के लिए आवेदन किया जा सकता है।
यदि एक ही जगह 2 उच्च न्यायलाय है तो जो उच्च न्यायालय के अंतर्गत वाद हुआ है उस उच्च न्यायालय मे अपील के लिए आवेदन कर सकते है।
धारा 24
अंतरण और प्रत्याहरण की शक्ति –
किसी भी पक्षकार के आवेदन पर उच्च न्यायालय सभी पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात और उनकी सुनवाई करने के पश्चात या ऐसी सूचना जो किसी उच्च न्यायलाय या जिला न्यायालय से संबन्धित है ऐसे प्रकरण मे निम्न कार्य करेगा।
वह अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय में पड़े किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही का प्रत्याहरण कर सकता है। तथा उसका विचारण और निर्वहन कर सकता है।
ऐसे किसी वाद या अपील या अन्य कार्यवाही को जो उसके सामने विचारण के लिए पड़े हुए है उसको अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय को सौप देगा। जो उसका विचारण करने या उसका निपटारा करने के लिए सक्षम है।
या वाद को उसी न्यायालय मे विचारण के लिए दे सकता है वह उसका प्रत्यांतरण के लिए दे सकता है जहा पर उसका जहा उसका प्रत्याहरण किया गया था।
जहा किसी वाद का कार्यवाही अंतरण उपधारा 1 के अधीन किया गया है तो न्यायालय विशेस निर्देश के अधीन रहते हुए या तो पुनः विचारण करेगा या जहा तक विचारण हो गया है उसके आगे विचारण सुरू कर देगा।
इसमे अपर न्यायधीश और सहायक न्यायधीस को जिला न्यायालय के अधीन समझा जाता है।
किसी कार्यवाही को इसमे सम्मलित किया जाएगा।
किसी लघुवाद न्यायलाय के वाद को आंतरित करने पर सुनने वाला भी लघुवाद न्याय्यलय के अंतर्गत आता है।
धारा 25
यह वादो के आंतरण से संबन्धित उच्चतम न्यायालय की शक्ति को बताता है।
किसी भी पक्षकार के आवेदन पर उच्च न्यायालय सभी पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात और उनकी सुनवाई करने के पश्चात उच्चतम न्यायालय निर्णय देगा की आंतरन होगा या नही।
सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति प्रदान होती है कि वह किसी वाद अपील या उससे संबंधित अन्य न्यायिक कार्यवाही को किसी एक राज्य के हाईकोर्ट या अन्य सिविल कोर्ट से दूसरे राज्य के हाईकोर्ट या अन्य सिविल कोर्ट में स्थानांतरित करने को कह सकता है। परन्तु इसके लिए वह खुद इस बात को लेकर संतुष्ट हो कि ऐसा किया जाना न्याय के लिए अति आवश्यक है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक वाद मे यह कहा कि केवल वाद का निपटारा देरी से होना कोई वजह नही है कि वाद अपील या उससे संबंधित अन्य न्यायिक कार्यवाही को किसी एक राज्य के हाईकोर्ट या अन्य सिविल कोर्ट से दूसरे राज्य के हाईकोर्ट या अन्य सिविल कोर्ट में स्थानांतरित किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के एक वाद मे वादी तेलांगना से वाद को दिल्ली कोर्ट मे ले जाना चाहता था क्योकि तेलांगना मे उसके वाद का निपटारा होने मे देरी हो रही थी उसका वाद तेलागना सरकार के जमीन आधिगृहण से संबंधित था। जिसके लिए उसने सुप्रीम कोर्ट मे रिट दायर किया था। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने उसको खारिज कर दिया की विलम्ब कोई आधार नही है वाद को स्थान्तरित करने के लिए।
इस प्रकार हमने आपको इस पोस्ट के माध्यम से धारा 21 से 25 तक समझाने का प्रयास किया है यदि कोई गलती हुई हो या आप इसमे और कुछ जोड़ना चाहते है या इससे संबंधित आपका कोई सुझाव हो तो आप हमे अवश्य सूचित करे।