सिविल प्रक्रिया संहिता धारा 99 से धारा 105 का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 98 तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने मे आसानी होगी। और पढ़ने के बाद हमें अपना कमेंट अवश्य करे।

धारा 99  –

इस धारा के अनुसार  जहां पर निर्णीत ऋणी से भिन्न स्थावर संपत्ति पर कब्जे की डिक्री के धारक के द्वारा या फिर जहां पर ऐसे संपत्ति का डिक्री के द्वारा बिक्री किया गया है। वह पर उसके क्रेता के द्वारा ऐसे संपत्तियों पर कब्जा हटा दिया गया हो। वह ऐसे कब्जा किए जाने के प्रतिवाद को लेकर न्यायालय मे मुकदमा कर सकता है।
जहां ऐसा कोई आवेदन किया जाता है वह  न्यायालय उस आवेदन पर न्यायिनणर्यन इसमे  अन्तिवष्ट उपबंध के अनुसार
करने के लिए  अग्रसर होगा ।

धारा 100 –

इस धारा के अनुसार . बे कब्जा किए जाने वाले का परिवाद करने वाले आवेदन  पर पारित किए जाने वाले आदेश को बताया गया है। इसमे नियम 101 के द्वारा दिये गए प्रश्नों पर न्यायालय यह धारणा देता है की –

आवेदन को मंजूर करते हुए या यह निर्देश देते हुए की आवेदक को उस संपत्ति पर कब्जा दे दिया जाए । या फिर ऐडन को खारिज करते हुए यह आदेश करेगा की ।
ऐसा अन्य कोई आदेश पारित करेगा जो की न्यायालय को ठीक लगता हो।

धारा 101-

इस धारा के अनुसार अवधारित किए जाने वाले प्रश्न को बताया गया है। इस धारा के अनुसार नियम 97 तथा नियम 99 के अधीन रहते हुए किसी आवेदन पर हुए कार्यवाही के पक्षकारो के बीच या फिर उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होने वाले और आवेदन के न्याय निर्णय से सुसंगत होने पर जिसके अंतर्गत संपत्ति के हक़ उसमे अधिकार और उससे संबन्धित हित से संबन्धित प्रश्न होते है। इसमे आवेदन से संबन्धित कार्यवाही करने वाले न्याय्यलय के द्वारा अवधारित किया जाता है। न की पृथक वाद के द्वारा इसमे न्यायालय उस समय किसी अन्य विधि मे किसी बात के प्रतिकूल होते हुए भी ऐसे प्रश्नों का अनिश्चितता होते हुए भी अधिकार रखने वाला समझा जाएगा।

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धारा 102 –

इस धारा के अनुसार वादकालीन अंतर रीति  को इस नियम को लागू न होना बताया गया है। इसके अनुसार नियम  98 और नियम  100 मे कोई भी बात स्थावर संपत्ति  के
कब्जे की डिक्री  के निष्पादन मे  उस व्यक्ति के द्वारा किए गए प्रतिरोध या फिर  डाली गई बाधा को या किसी व्यक्ति के कब्जा किए जाने को
लागू नही  होगी जिससे निर्णीत ऋणी ने उस समपट्टी के उस वाद के जिसमे डिक्री पारित की गयी थी संस्थित किए जाने के बाद अंतरित की है। यदि कोई डिक्री 25000 से कम की है तो उसकी द्वितीय अपील नहीं की जा सकती है।

धारा 103-

इस धारा के अनुसार तथ्य विवाद मामले में धारण करने की  उच्च न्यायालय की शक्ति को बताया गया है। यदि कोई साक्ष्य पर्याप्त है तो किसी भी द्वातीय अपील मे उच्च न्यायालय ऐसे अपील के निपटारे के लिए आवश्यक कोई विवादित अवधारित करेगा –

जो की निचले  अपील के न्यायालय के द्वारा या प्रथम बार के न्यायालय और निचले न्यायालय के द्वारा अवधारित नही किया गया है।
अथवा
धारा 100 मे निर्दिष्ट विधि के ऐसे प्रश्न के विनिश्चय के कारण ऐसे न्यायालय या न्यायालयों के द्वारा गलत तौर पर आधारित किया गया था।

धारा 104 –

इस धारा के अनुसार आदेश की अपील को बताया गया है। वह आदेश की अपील की जा सकती है।
इसमे कुछ का लोप कर दिया गया है। धारा 35 के आदेश की अपील की जा सकती है। इसके अनुसार ऐसा आदेश नही किया जाना चाहिए । या फिर यदि किया भी जाए तो कम रकम के संदाय मे किया जाना था।

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धारा 91 और धारा 92 के अनुसार कोई वाद यदि संस्थित किया जाने वाला आदेश को इजाजत देने से इंकार करने वाला आदेश के प्रति अपील कर सकते है।

धारा 95 के अधीन आदेश
इस संहिता के अनुसार कोर्ट के द्वारा जुर्माना का आदेश या किसी की गिरफ्तारी या निरोध जो डिक्री के निष्पादन मे है तो अपील नहीं की जा सकती है वरना अपील की जा सकती है।
नियमो के अधीन किया गया कोई ऐसा आदेश की अपील नहीं होगी।
नियमो द्वारा दिया गया कोई ऐसा आदेश जिसमे यह निर्दिष्ट होता है की उसकी अपील इस नियम के अंतर्गत हो सकती है।

धारा 105 –

इस धारा के अंतर्गत अन्य आदेश को बताया गया है।
इस धारा मे बताया गया है की अन्यथा उपबंधित किसी न्याय्यलय के द्वारा अपनी आरंभिक या अपीली अधिकारिता के प्रयोग मे कोई आदेश की कोई अपील नही होगी परंतु जहा किसी डिक्री की अपील की गयी है और वह किसी आदेश की गलती या अनियमितता के कारण मामलो के निर्णय पर पड़ रहा है तो उसकी अपील की जा सकती है।

आदेश 43

आदेश 43 के अंतर्गत  न्यायालय द्वारा समय-समय पर आदेश दिये जाते रहते है जैसे की  यदि किसी पक्षकार द्वारा कार्यवाही पर लगे वाद को किसी विशेष दिनांक पर उसको आगे बड़ाने के संबंध मे  कोई आवेदन दिया जाता है।  तोइस प्रकार के आवेदन पर न्यायालय उस वाद  को उस विशेष दिनांक पर डालने की आज्ञा देता है।  या फिर नहीं देता है।  इस के संदर्भ में अपना आदेश न्यायालय देगा विशेषकर आदेश वाद के संचालन के लिए न्यायालय द्वारा दिए जाते है।

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समय-समय पर दिए गए आदेशों का संकलन करने पर ही कोई एक निर्णय तैयार होता है।और यह माना जा सकता है कि आदेशों का संकलन ही निर्णय है परंतु यह परिभाषा पूर्ण नहीं है।आदेश किसी भी प्रकार से हो सकते है उसमे  बहुत छोटे तत्थों भी हो सकता है। तथा कोई भी आदेश किसी एक वाद में किसी समय किसी एक पक्षकार के पक्ष में हो सकता है तथा किसी समय उसी पक्षकार के विरुद्ध भी हो सकता है। आदेश पक्षकारों के अधिकारों का अंतिम रूप से निर्धारण कर भी सकता है और नहीं भी करता है।

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