जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 215 तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं
नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझनेमें आसानी होगी।
धारा 216
इस धारा के अनुसार धारा 216 में न्यायालय को यह शक्ति दी गयी है। कि वह आरोपों को परिवर्तित कर सकता है। तथा इस धाराआ के अनुसार उनका परिवर्धन भी कर सकता है। अर्थात आरोपों को बदल भी सकता है और आरोपों को बढ़ा भी सकता है या घटा भी सकता है। यह दोनों शक्तियां दंड न्यायालय को प्राप्त होती हैं।
इस धारा मे यह स्पष्ट करती है कि गलती या लोप को तभी तात्विक माना जाएगा जब गलती या लोप के कारण अभियुक्त के साथ यदि कोई अन्याय हुआ हो या फिर अभियुक्त भुलावे में पड़ गया हो । और ऐसे भुलावे में पड़ने के कारण अन्याय हुआ हो। धारा में आरोप में गलतियों के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम के निवारण हेतु को उपबंध दिए गए है। यह धारा अपने लक्ष्य को भली-भांति प्राप्त भी करती है।
धारा 217
इस धारा के अनुसार जब आरोप परिवर्तित किया जाता है तब साक्षियों का पुन: बुलाया जाना बताया गया है।
इसके अनुसार जब कभी विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् न्यायालय द्वारा आरोप परिवर्तित या परिवर्धित किया जाता है । तब अभियोजक और अभियुक्त को
(क) किसी ऐसे साक्षी को जिसकी परीक्षा की जा चुकी है। उसको पुनः बुलाने की या पुनः समन करने की और उसकी ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के बारे में परीक्षा करने की अनुज्ञा दी जाएगी जब तक न्यायालय का ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे। तथा यह विचार नहीं है कि, यथास्थिति, अभियोजक या अभियुक्त तंग करने के या बिलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से ऐसे साक्षी को पुनः बुलाना या उसकी पुनः परीक्षा करना चाहता है।
(ख) किसी अन्य ऐसे साक्षी को भी, जिसे न्यायालय आवश्यक समझे, बुलाने की अनुज्ञा दी जाएगी।
धारा 218
इस धारा के अनुसार सुभिन्न अपराधों के लिए पृथक् आरोप को बताया गया है।
इसके अनुसार
(1) प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है। उसको पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप का विवरण पृथक्तत: किया जाएगा।
परंतु जहाँ अभियुक्त व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा, ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट की राय है कि उससे ऐसे व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा वहां मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के विरुद्ध विरचित सभी या किन्हीं आरोपों का विचारण एक साथ कर सकता है।
(2) उपधारा (1) की कोई बात धारा 219, 220, 221 और 223 के उपबंधों के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी।
उदाहरण
राम पर एक अवसर पर चोरी करने और दूसरे किसी अवसर पर घोर उपहति कारित करने का अभियोग है। चोरी के लिए और घोर उपहति कारित करने के लिए राम पर पृथक्-पृथक् आरोप लगाने होंगे और उनका विचारण पृथक्ततः करना होगा।
धारा 219
इस धारा के अनुसार गलतियों का प्रभाव को बताया गया है। एक ही वर्ष में किए गए एक ही किस्म के तीन अपराधों के आरोप एक साथ लगाया जा सकता है।
इसके अनुसार जब किसी व्यक्ति पर एक ही किस्म के ऐसे एक से अधिक अपराधों का अभियोग है । जो उन अपराधों में से पहले अपराध से लेकर अंतिम अपराध तक बारह मास के अन्दर ही किए गए हैं। तो चाहे वे एक ही व्यक्ति के बारे में किए गए हों या नहीं उन सब पर तब उस पर उनमें से तीन से अनधिक कितने ही अपराधों के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया और विचारण किया जा सकता है।
अपराध एक ही किस्म के तब होते हैं जब वे भारतीय दण्ड संहिताके अनुसार या किसी विशेष या स्थानीय विधि की एक ही धारा के अधीन दण्ड की समान मात्रा से दण्डनीय होते हैं। :
परन्तु इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जाएगा कि भारतीय दण्ड संहिताकी धारा 379 के अधीन दण्डनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का उक्त संहिता की धारा 380 के अधीन दण्डनीय अपराध है, और भारतीय दण्ड संहिता या किसी विशेष या स्थानीय विधि की किसी धारा के अधीन दण्डनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का ऐसे अपराध करने का प्रयत्न किया है । जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो।
धारा 220
इस धारा के अनुसार एक से अधिक अपराधों के लिए विचारण को बताया गया है।
इसके अनुसार
(1) यदि परस्पर संबद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही व्यक्ति द्वारा किए गए हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है।
(2) जब धारा 212 की उपधारा (2) में या फिर धारा 219 की उपधारा (1) में उपबंधित रूप में, आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से सम्पत्ति के दुर्विनियोग के जिसमे एक या अधिक अपराधों से आरोपित किसी व्यक्ति पर उस अपराध या अपराधों के किए जाने को सुकर बनाने या छिपाने के प्रयोजन से लेखाओं के मिथ्याकरण के एक या अधिक अपराधों का अभियोग है, तब उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है।
(3) यदि अभिकथित कार्यों से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अनुसार जिससे अपराध परिभाषित या दंडनीय हों, दो या अधिक पृथक् परिभाषाओं में आने वाले अपराध बनते हैं तो जिस व्यक्ति पर उन्हें करने का अभियोग है उस पर ऐसे अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है । और विचारण किया जा सकता है।
(4) यदि कई कार्य, जिनमें से एक से या एक से अधिक से स्वयं अपराध बनते हैं। या मिलकर भिन्न अपराध बनते हैं तो ऐसे कार्यों से मिलकर बने अपराध के लिए और ऐसे कार्यों में से किसी एक या अधिक द्वारा बने किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति पर एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है।
(5) इस धारा की कोई बात भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 71 पर प्रभाव न डालेगी।