(सीआरपीसी) दंड प्रक्रिया संहिता धारा 326 से धारा 328  तक का विस्तृत अध्ययन

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट में दंड प्रक्रिया संहिता धारा 325   तक का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह धाराएं
नहीं पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की धाराएं समझने में आसानी होगी।

धारा 326

 इस धारा मे  एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा और  दूसरे न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित साक्ष्य पर दोषसिद्धि या सुपुर्दी को बताया गया है।

(1) जब कभी किसी जांच या विचारण में साक्ष्य को पूर्णतः सुनने और अभिलिखित करने के पश्चात् कोई अन्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसमें अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकता है और कोई अन्य न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट जिसे ऐसी अधिकारिता है और जो उसका प्रयोग करता है।  उसका उत्तरवर्ती हो जाता है, तो ऐसा उत्तरवर्ती न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट अपने पूर्ववर्ती द्वारा ऐसे अभिलिखित  अपने पूर्ववर्ती द्वारा अभिलिखित और  अपने द्वारा अभिलिखित साक्ष्य पर कार्य कर सकता है:

परन्तु यदि उत्तरवर्ती न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की यह राय है कि साक्षियों में से किसी की जिसका साक्ष्य पहले ही अभिलिखित किया जा चुका है, अतिरिक्त परीक्षा करना न्याय के हित में आवश्यक है तो वह किसी भी ऐसे साक्षी को पुनः समन कर सकता है और ऐसी अतिरिक्त परीक्षा, प्रतिपरीक्षा और पुनःपरीक्षा के, यदि कोई हो, जैसी वह अनुज्ञात करे, पश्चात् वह साक्षी उन्मोचित कर दिया जाएगा।

(2) जब कोई मामला एक न्यायाधीश से दूसरे न्यायाधीश को या एक मजिस्ट्रेट से दूसरे मजिस्ट्रेट को] इस संहिता के उपबंधों के अधीन अंतरित किया जाता है तब उपधारा (1) के अर्थ में पूर्वकथित मजिस्ट्रेट के बारे में समझा जाएगा कि वह उसमें अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकता है और पश्चात्कथित मजिस्ट्रेट उसका उत्तरवर्ती हो गया है।

(3) इस धारा की कोई बात संक्षिप्त विचारणों को या उन मामलों को लागू नहीं होती हैं जिनमें कार्यवाहियां धारा 322 के अधीन रोक दी गई है या जिसमें कार्यवाहियां वरिष्ठ मजिस्ट्रेट को धारा 325 के अधीन भेज दी गई हैं।

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धारा 327

इस धारा के अनुसार न्यायालयों का खुला होना बताया गया है।

(1) वह स्थान जिसमें कोई दंड न्यायालय किसी अपराध की जांच या विचारण के प्रयोजन से बैठता है।  खुला न्यायालय समझा जाएगा, जिसमें जनता साधारणतः प्रवेश कर सकेगी जहां तक कि सुविधापूर्वक वे उसमें समा सके :-

परन्तु यदि पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में आदेश दे सकता है कि जनसाधारण या कोई विशेष व्यक्ति उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, न तो प्रवेश करेगा, न होगा और न रहेगा।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376क, धारा 376ब, [धारा 376ग, धारा 376ष या धारा 3768] के अधीन बलात्संग या किसी अपराध की जांच या उसका विचारण बंद कमरे में किया जाएगा:

परन्तु पीठासीन न्यायाधीश, यदि वह ठीक समझता है तो, या दोनों में से किसी पक्षकार द्वारा आवेदन किए जाने पर, किसी विशिष्ट व्यक्ति को, उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, प्रवेश करने, होने या रहने की अनुज्ञा दे सकता है :

‘[परंतु यह और कि बंद कमरे में विचारण यथासाध्य किसी महिला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा।]

(3) जहाँ उपधारा (2) के अधीन कोई कार्यवाही की जाती है वहां किसी व्यक्ति के लिए किसी ऐसी कार्यवाही के संबंध में किसी बात को न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना, मुद्रित या प्रकाशित करना विधिपूर्ण नहीं होगा :]

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परंतु बलात्संग के अपराध के संबंध में विचारण की कार्यवाहियों के मुद्रण या प्रकाशन पर पाबंदी, पक्षकारों के नाम और पते की गोपनीयता को बनाए रखने के अध्यधीन हटाई जा सकेगी।

धारा 328

इस धारा के अनुसार अभियुक्त के पागल होने की दशा में प्रक्रिया–

(1) जब जांच करने वाले मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध जांच की जा रही है विकृतचित्त है और परिणामतः अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तब मजिस्ट्रेट ऐसी चित्तविकृति के तथ्य की जांच करेगा और ऐसे व्यक्ति की परीक्षा उस जिले के सिविल सर्जन या अन्य ऐसे चिकित्सक अधिकारी द्वारा कराएगा, जिसे राज्य सरकार निर्दिष्ट करे, और फिर ऐसे सिविल सर्जन या अन्य अधिकारी की साक्षी के रूप में परीक्षा करेगा और उस परीक्षा को लेखबद्ध करेगा।

(1क) यदि सिविल सर्जन इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त विकृतचित्त है तो वह ऐसे व्यक्ति को देखभाल, उपचार और अवस्था के पूर्वानुमान के लिए मनश्चिकित्सक या रोग विषयक मनोविज्ञानी को निर्दिष्ट करेगा और, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक मनोविज्ञानी मजिस्ट्रेट को सूचित करेगा कि अभियुक्त चित्तविकृति या मानसिक मंदता से ग्रस्त है अथवा नहीं:

परंतु यदि अभियुक्त, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक मनोविज्ञानी द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना से व्यथित है तो वह चिकित्सा बोर्ड के समक्ष, अपील कर सकेगा जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगा,

(क) निकटतम सरकारी अस्पताल में मनश्चिकित्सा एकक प्रमुख ; और

(ख) निकटतम चिकित्सा महाविद्यालय में मनश्चिकित्सा संकाय का सदस्य ।] (2) ऐसी परीक्षा और जांच लंबित रहने तक मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति के बारे में धारा 330 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही कर सकता है।

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(3) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को यह सूचना दी जाती है कि उपधारा (1क) में निर्दिष्ट व्यक्ति विकृतचित्त का ब्यक्ति है तो मजिस्ट्रेट आगे यह अवधारित करेगा कि क्या चित्त विकृति अभियुक्त को प्रतिरक्षा करने में असमर्थ बनाती है और यदि अभियुक्त इस प्रकार असमर्थ पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट उस आशय का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य के अभिलेख की परीक्षा करेगा तथा अभियुक्त के अधिववक्ता को सुनने के पश्चात् किंतु अभियुक्त से प्रश्न किए बिना, यदि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टय़ा मामला नहीं बनता है तो वह जांच की मुल्तवी करने की बजाए अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और उसके संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रीति में कार्यवाही करेगा:

परंतु यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया मामला बनता है जिसके संबंध में विकृतचित्त होने का निष्कर्ष निकाला गया है तो वह कार्यवाही को ऐसी अवधि के लिए मुल्तवी कर देगा जो मनश्चिकित्सक या रोग विषयक मनोविज्ञानी की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है और यह आदेश देगा कि अभियुक्त के संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रूप में कार्यवाही की जाए।

(4) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को यह सूचना दी जाती है कि उपधारा (1क) में निर्दिष्ट व्यक्ति मानसिक मंदता से ग्रस्त व्यक्ति है तो मजिस्ट्रेट आगे इस बारे में अवधारित करेगा कि मानसिक मंदता के कारण अभियुक्त व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है और यदि अभियुक्त इस प्रकार असमर्थ पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट जांच बंद करने का आदेश देगा और अभियुक्त के संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रीति में कार्यवाही करेगा।

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