प्रशासनिक विधि के अनुसार प्रत्यायोजित विधान से आपका क्या आशय है।

आइये जानते है कि प्रशासनिक विधि मे प्रत्यायोजित विधान के बारे मे- जयदातर् जो हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती है प्रत्यायोजन के माध्यम से ही दैनिक जीवन की न्यायायिक क्रिया पूरी होती है । विधायी शक्ति को कैसे लागू करना होगा सुप्रीम कोर्ट ने इसका विवरण दिया है। विषय वस्तु मे अनेक तकनीक जटिलता आती रहती हैं जो विधायिका को कार्य करने मे बाधा उत्पन्न करती है। इसके रहते योजना बनाना असंभव हो जाता है। 

इसका पृसिक्षण करने के लिए भी कार्यपालिका को समय की अवश्यकता पड़ती है। तथा फिर मूल विधान द्वारा जो रिक्त स्थान हैं उसको भर सकती है।  ऐसा रूप रेखा तैयार करना कि समय की बचत हो सके। और उसको सरल तारीके से ऐसे प्रस्तुत करना कि नियम बनाने के लिए व्यौरो का स्थान रिक्त रहे जिसमे बाद मे भरा जा सके। ज्यादतर ऐसे तकनीक का प्रयोग करते हैं जो विधान की नीति को प्रभावित ना करे। आमतौर पर स्थानीय नियम स्थानीय प्राधिकरणो द्वारा बनाई जाती है। और यह प्रत्यायोजित विधान को दिखाती है। साधाणतया विधान शब्द का प्रयोग 2 तरीके से करते हैं ।पहला किसी एजेंसी या विधायी द्वारा विधान के अन्तर्गत इसको लागू करने वाली शक्तियों का कार्य करना इसके अधीन एजेंसी द्वारा बनाए जाने वाले उपनियम प्रत्यायोजित विधि शक्ति का सही से प्रयोग की जाने वाली निरंतर प्रक्रिया हैं ।

यह अनेक रूपो में पाया जा सकता है। जैसे कि नियम बनाना , उप नियम बनना, किसी भी अधिकारी के आदेश का पालन करना , और उसमे होने वाले नियमो में परिवर्तन करना आदि शामिल हैं।भारत की संघीय अदालत ने प्रत्यायोजिय का दायरा कम कर दिया हैं ।

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प्रत्यायोजित विधान की उत्पत्ति- 

प्रत्यायोजित विधान स्वतंत्रता से पहले भी था। परंतु तब यह अनिश्चित स्थिति में था। जबकि मध्य प्रदेश के एक केस मे इसका जिक्र किया गया है कि परियायोजित विधान को एक मानक कानून की तरह लागू किया जाना चाहिये। इसके द्वारा मामलो का निवारण होगा तथा इसपर कार्य करने वालो को सहायता मिलेगी।  इसके अनुसार किसी अधिकारी को प्रत्यायोजन द्वारा जीतनी शक्ति प्राप्त हो उसका ही प्रयोग् किया जाना चाहिए। अगर विधायी शक्तियों का उलंघन करते है तो वह न्यायालय द्वारा लागू नही होगा। और न्यायालय इसको अवैध करार देगी।  

अब यह देखना हैं कि क्या जो विधायिका द्वारा निर्धारित कार्य था वह सुचारु रूप से हो रहा है या नही।या अधिकारियों ने जो प्रत्यारोपण का कार्य दिया था उसपर सही से कार्य हो रहा हैं या नही कार्य बताये गए नियम के अनुसार हो रहा है या नही। आदि सभी चीजो का परिक्षण आवश्यक है। इस बात का हमेशा से ध्यान रखना होगा कि मूल अधिकार द्वारा संचालित नियम ऐसे हो कि उसमे बदलाव ना करना पड़े। क्योकि प्रतिनिधि द्वारा बनाये गए नियम विधायिका की शक्ति का उलंघन नही कर सकते है। भारत की संघीय अदालत ने प्रत्यायोजिय का दायरा कम कर दिया हैं । संघीय अदालत ने प्रत्यायोजिय का दायरा कम कर दिया हैं ।

निरसन की शक्ति 

निरसन की शक्ति के बारे में  दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि  निरसन की शक्ति को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता है । हालाकि  बाद में भारतीय जीवन बिमा निगम ने अपने कुछ प्रावधानों के लिए केंद्र सरकार को अधिकृत किया था।

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ब्योहार में आने वाली परेशानियों को हटाने की शक्ति- इस शक्ति का प्रयोग अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा किया जाता है जब भी उन्हें किसी नियम को बनाने में परेशानी का सामना करना पड़ता है यह मूल अधिकारी में हो रही परेशानी को दूर करने की शक्ति प्रदान करता है।लेकिन इसका उपयोग साधारणता नहीं किया जा सकता है ।दैनिक जीवन में यह तभी प्रयोग होगा जब थोड़ा फेरबदल करने से परेशानी दूर हो जाए यह नीति को परिवर्तित नहीं कर सकती हैं ।

किसी चीज को लागू करने और उसको हटाने की शक्ति

इसके अनुसार मूल अधिनियम नीति बनता है ।और उसका निर्गमन करता है परन्तु अपने अधीनस्थ प्रशाशन को यह शक्ति प्रदान करता है कि उसको अपने अनुसार लचीला बना ले और वाहा के प्रशाशन के अनुसार उसको लागू करे उसमे उनको यह अधिकार हैं कि कुछ उप नियम जोड़ ले या कुछ नियमो को हटा भी सकते हैं जिससे स्थानीय लोग इसका पालन कर सके वह इनके अनुरूप हो ।

कर लगाने की शक्ति का प्रत्यायोजन

यह एक मह्वपूर्ण कार्य हैं को विधायी द्वारा किया जाता है ।कराधान के सभी नियमो का मूल रूप से पालन करना असम्भव हैं अतः कुछ शक्तियों का प्रावधान किया जाता है जिनका प्रत्यायोजनजरूरी होता है ।इनका पृत्यायोजन के लिए यह जरूरी है कि मूल अधिकारों की नीति सही तरह से मार्ग दर्शित हो ।

 विधान का संछिप्त होना 

ये विधान प्रतिनिधि के लिए बनाए गए नियम को दर्शाता है जो कि बिना नीति बनाए शक्ति को प्रत्यायोजित करता है । ब्यायोहरिक रूप में तो यह अमान्य घोषित होना चाहिए क्योंकि यह प्रत्यायोजन विधि का पालन नहीं करता है ।परन्तु ब्यौहार में ऐसा बहुत बार देखा गया है । यहां तक कि अदालतें भी इसका पालन कभी कभी कर लेती हैं परन्तु यह पूर्ण रूप से सही नहीं है ।

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प्रत्यायोजित विधान का नियंत्रण

न्यायालय द्वारा 2 प्रकार से इसपर नियंत्रण रख सकते हैं ।

अंसवैधानिक रूप में 

वास्तविक और प्रक्रियागत रूप में 

यह बताता हैं कि प्रत्यायोजन द्वारा दी जाने वाली शक्ति यदि मूल अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रही हो तो ऐसी शक्तियों को अमान्य करार दिया जाता है।यह शक्तियों के दायरे और सीमा को निर्धारित करता है ।

इसके अनुसार अदालतें केवल यह लागू कर सकती हैं की प्रतिवादी इसके अन्तर्गत आता है कि नहीं कि वह प्रतयायोजन कि नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग कर सके। प्रत्यायोजन विधान को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।

इसको उस नियम के अनुसार होना चाहिए जिसके लिए इसका निर्माण हुआ हैं । यह मूल अधिकार के रूप में प्राप्त की गई शक्तियों के अंदर कार्य करना चाहिए। कोर्ट इसको 3 तरह से चेक करती हैं ।

सबसे पहले वह शक्ति के दायरे और शक्ति की सीमा को देखती हैं क्या वह अधिनियम द्वारा प्रदान शक्ति के अंदर हैं या नहीं । फिर वह इसका समीक्षण करती हैं ।और अंत में इसका परीक्षण करती हैं ।वह इसका मूल्यांकन नहीं करती और ना ही अपनी राय प्रदान करती हैं ।

यह जरूरी है कि ध्यान रखा जाए कि प्रतय्यायोजन विधान की वैधता की कल्पना मात्र हैं इसलिए कोर्ट को इसके प्रति झुकाव रखना होगा जिससे इसके नियमो को लागू किया जा सके ।

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