विधि शास्त्र के अनुसार न्याय क्या होता है? विधिशास्त्र के कानून का क्या महत्व है।

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे विधिशास्त्र संबन्धित कई पोस्ट का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की पोस्ट समझने मे आसानी होगी।

विधि शास्त्र के अनुसार ‘न्याय’ शब्द अंग्रेजी के Justice शब्द और लैटिन भाषा के Jus’से बना है। जिसका अर्थ होता है। ‘बाँधना’ या ‘जोड़ना’ । इस प्रकार न्याय का व्यवस्था से स्वाभाविक सम्बन्ध है । यह कहा जा सकता है कि न्याय उस व्यवस्था का नाम है जो व्यक्तियों समुदायों तथा समूहों को एक सूत्र में बाँधती है। किसी व्यवस्था को बनाए रखना ही न्याय है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था किन्हीं तत्त्वों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने के बाद ही बनती है।

आज की संगठित व्यवस्था का आधार कानून है। और कानून का उद्देश्य न्याय की स्थापना है। न्याय के बिना कानून की कल्पना नहीं की जा सकती।न्याय शब्द एक दार्शनिक शब्द है। परंतु विधिक रूप में इसका अर्थ उस काम से लिया जाता है जो कानून और न्याय के हिसाब से सही हो अर्थात न्याय शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो संदर्भो में किया जाता है। इससे मौजूदा कानून के वजूद की ईमानदार अनुभूति हो तथा कानूनी कार्रवाई का गुण भी इसमे सम्मलित हो।

कानून का एकमात्र लक्ष्य न्याय की व्यवस्था करना है। अतः न्याय का लक्ष्य है, और कानून का साधन है। न्याय प्रशासन के लिए कुछ कठोर नियमों का होना आवश्यक है। यदि वहां ऐसा अभाव है ,तो निश्चित नियमों की अनुपस्थिति में सुद्धद्धि, विवेक और प्राकृतिक न्याय का सहारा लेना पड़ता है। हम न्यायाधीशों की किसी बात को जोड़ने या घटाने के स्वच्छ अधिकार को नियंत्रित नहीं कर सकते।अतः उनकी सहायता के लिए मशीन का भी प्रयोग कर सकते जिससे न्याय उचित तरीके से मिल सके।

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सांविधानिक जन को पूरा करने के लिए हमारे देश को इस क्षेत्र में साफ और प्रभावी सुधार की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि न्याय और कानून के संदर्भ में जनता के विश्वास को न सिर्फ बचाया जाए बल्कि उसे बढ़ाया भी जा सकता है। यह सबसे जरूरी होता है कि न्याय देने की व्यवस्था मजबूत और प्रभावी होनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय कानून एवं संवैधानिक कानून को कोई स्थान नहीं है। संवैधानिक कानून पर आर्थिक विचार ना करते हुए सामान्य अंतरराष्ट्रीय कानून के विषय में न्याय यह है कि वह एक राज्य द्वारा ना बनाकर अनेक राज्यों के सामूहिक विचार की परिणति है। अतः वे नैतिक नियमों से अधिक कुछ अलग नहीं है। उन्होंने कानून का संबंध स्थापित किया है।

कुछ विद्वानो के द्वारा न्याय की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है।

मिल के अनुसार-
“न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है। जो मानव-कल्याण की धारणाओं से सम्बन्धित होते है । तथा जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी नियम से अधिक महत्त्वपूर्ण होते है।”

बेन तथा पीटर्स के अनुसार-

“न्याय का अर्थ यह होता है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो तब तक सभी व्यक्तियों से एक जैसा व्यवहार किया जाये ।
समाज के अन्तर्गत न्याय होता है। न्याय के अर्थ को सत्य, नैतिकता तथा शोषण विहीनता की स्थिति में ही पाया जा सकता है । इसके अर्थ का एक पहलू लोगों | के बीच व्यवस्था की स्थापना पर जोर देता है। तो दूसरा पहलू अधिकारों व कर्तव्यों को बनाने का यत्न करता है । न्याय के अर्थ में दायित्व, सुविधाएँ, अधिकार, व्यवस्था, नैतिकता, न्याय की भावना, सत्य, उचित व्यवहार आदि तत्त्व सम्मलित होते हैं।

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समांड के अनुसार –
कानून आचरण या व्यवहार के नियम है। जिन्हें की प्रभुताधारी द्वारा लगाया गया और लागू किया गया अतः यह कहा जा सकता है कि सामण्ड ने जो कानून की परिभाषा दी है। वह ऑस्टिन की परिभाषा से कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण रखती है ।और त्रुटियों मे सुधार कर सकते है।

पैटन के अनुसार –
कानून न्याय के लक्ष्य तक पहुंचने की एक साधन मात्र है। उसके दृष्टिकोण से कानून का उद्देश्य केवल न्याय की खोज करना नहीं है ।बल्कि दृढ़ता पूर्वक सिद्धांतों का प्रकट करना और एक व्यवस्था उत्पन्न करना है।

मेरियम के अनुसार-
“न्याय उन मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का जोड़ है जिनके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार तथा सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। जिन्हें समाज उचित मानता है।”

रफल के अनुसार-
“न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है। तथा समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।”

अशोक कुमार गांगुली, जस्टिस ए आर लक्ष्मणन जस्टिस जेएस वर्मा, जस्टिस केजी बालाकृष्णन, जस्टिस एसबी सिन्हा, प्रोफेसर मोहन गोपाल, प्रोफेसर एन आर माधव मेनन, जस्टिस और जस्टिस अरिजीत पसायत आदि ने न्याय में सुधार की दिशा में न सिर्फ सुझाव दिए है। बल्कि अपने निर्णयों द्वारा उस को लागू भी कराया है। केंद्रीय विधि आयोग ने भी अपनी विभिन्न रिपोर्टो में न्यायिक सुधार की बात कही है।

न्याय व्यवस्था का मुख्य काम सिर्फ विवादों को सुलझाना नहीं होता बल्कि न्याय की रक्षा करना भी होता है। न्याय व्यवस्था कितनी प्रभावी है इसका उदाहरण इसी आधार पर होता है कि वह किस हद तक न्याय की रक्षा करता है और न्यायपालिका और उससे जुड़ा कोई भी सुधार इस भावना के साथ किया जाना चाहिए कि और प्रभावशाली ढंग से न्याय की रक्षा हो सके।

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फास्ट ट्रैक कोर्ट, लोक अदालत, एडीआर, जजों के लिए मामलों की संख्या का निर्धारण, छुट्टियों की संख्या में कमी, कोर्ट की व्यवस्था के लिए आधुनिक तकनीक अपना कर कुछ ऐसे प्रयास किए हैं । जो न्यायपालिका खुद अपने स्तर से सुधार के लिए कर सकती है। इसके अलावा ज्यादा बजट देकर, जजों की संख्या बढ़ाकर, वादी को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करके भी न्याय व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया जा रहा है।

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