अपकृत्य विधि के अनुसार उपेक्षा क्या होता है?

जैसा कि आप सभी को ज्ञात होगा इससे पहले की पोस्ट मे अपकृत्य विधि संबन्धित कई पोस्ट का विस्तृत अध्ययन करा चुके है यदि आपने यह नही पढ़ी है तो पहले आप उनको पढ़ लीजिये जिससे आपको आगे की पोस्ट समझने मे आसानी होगी।

उपेक्षा का अर्थ उदासीनता होता है। और इसका मतलब तिरस्कार, निरादर, अवहेलना से है। किसी को अयोग्य या तुच्छ समझकर अथवा उसे नीचा दिखाने के लिए उसकी ओर ध्यान न देना आदि शामिल है। आदर या सम्मान न करना आदि शामिल है।

इसकी परिभाषा इस प्रकार है।

विनफील्ड के अनुसार-

“अपकृत्य का दायित्व एक ऐसे कर्तव्य के उल्लंघन से उद्भूत निर्णय होता है। जिसे प्राथमिक रूप से विधि द्वारा सुनिश्चत किया जाता है। और जो जनसाधारण के प्रति उत्तरदायी होता है। तथा इस उल्लंघन का निवारण अधिनिर्धारित नुकसान के लिए कार्यवाही द्वारा किया जाता है।”

सामंड के अनुसार-

”अधिकार युक्तता के नियम के द्वारा मान्य और संरक्षित एक प्रकार का हित है। यह एक ऐसा हित है जिसका सम्मान करना एक कर्तव्य होता है । और जिसकी अवहेलना करना एक दोष होता है।” अर्थात सामंड के अनुसार, किसी अधिकार को न्यायिक रूप में प्रवर्तनीय होना चाहिए।”

लार्ड राइट के अनुसार-

यदि एक सेवक किसी कार्य को उपेक्षापूर्ण ढंग से करता है। या फिर जिसे वह ईमानदारी से करने के लिए प्राधिकृत किया गया था। या कपटपूर्ण नीति से करता है। जिसको वह ठीक ढंग से करने के लिए प्राधिकृत किया गया था। तो स्वामी उसकी उपेक्षा, कपट और भूल के लिए दायी होगा।

ऑस्टिन के अनुसार-

किसी निश्चित कर्त्तव्य के लोप होने को ‘उपेक्षा’ कहते हैं। अर्थात उपेक्षा के लिये दोषी व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करने की परवाह नहीं करता है। जिसे करने के लिये वह आबद्ध होता है। और इस प्रकार वह निश्चयात्मक कर्त्तव्य का भंग करता है।

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हालैण्ड के अनुसार-

उपेक्षा एक ऐसी असावधानी है। जो एक ओर तो दूसरों की उपहति तथा दूसरी ओर परिणामों को सोचने का पूर्ण अभाव रखती है। किसी वैध कर्त्तव्य को न करना या उसे लापरवाही से करना ‘उपेक्षा’ कहलाता है। उपेक्षा में आशय का होना आवश्यक नहीं होता है। यह भी आवश्यक नहीं होता है कि उपेक्षा या असावधानी जानबूझकर की गई हो। विधिक दृष्टि से किसी भी वैध कर्त्तव्य को न करना उपेक्षा का अपकार कहलाता है। उपेक्षा जिसको (असावधानी) भी कहते है। और इसका आशय से दोनों परस्पर-विरोधी शब्द हैं । क्योंकि असावधानी से किये गये कार्य का परिणाम सही नहीं होता है। इसके विपरीत जो कार्य किसी निश्चित आशय से किया गया हो तो उसे असावधानी से किया गया नहीं कहा जा सकता है।

सभी व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कार्य सावधानीपूर्वक करे। और ऐसा न करना उपेक्षा का अपकार होगा। यदि किसी व्यक्ति द्वारा असावधानी से कार्य किये जाने के परिणामस्वरूप किसी अन्य को कोई क्षति होती है। तो अपकारित व्यक्ति प्रतिवादी के विरुद्ध ‘उपेक्षा’ के लिए वाद ला सकता है।

इसके आवश्यक तत्व इस प्रकार है।

दोषपूर्ण कार्य किया जाना –

अपकृत्य के उपेक्षा के अनुसार पहला अनिवार्य तत्व है। कोई दोष पूर्ण कार्य किया जाना अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा अपने पूर्व – निर्धारित कर्तव्यों का भंग किया जाना।

नुकसानी का वाद लाने का अधिकार –

अपकृत्य के उपेक्षा के अनुसार दूसरा आवश्यक तत्व है। नुकसानी का बाद लाने का अधिकार होता है।

उलंघन से क्षति पाने का अधिकार –

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अपकृत्य के उपेक्षा के अनुसार तीसरा आवश्यक तत्व है। उलंघन से क्षति पाने का अधिकार होता है।

उपेक्षा के प्रकार-

विधि के अन्तर्गत उपेक्षा के दो प्रकार हैं।

(1) अवधानिक उपेक्षा
(2) अनवधानिक उपेक्षा

अवधानिक उपेक्षा –

अवधानिक उपेक्षा में यदि किसी व्यक्ति को हानि कारित होने की सम्भावना का पूर्वानुमान होता है । लेकिन हानि पहुँचाने की इच्छा विद्यमान नहीं होती है।

उदाहरण –

यदि किसी रोगी का इलाज करने में यदि चिकित्सक ऑपरेशन के सम्भावित खतरों को जानते हुए भी उस रोगी की शल्यचिकित्सा करता है। और इससे मरीज की हालत और बिगड़ जाती है। तो ऐसे दशा में चिकित्सक का कृत्य अवधानिक उपेक्षा कहा जायेगा।

अनवधानिक उपेक्षा-

इसमे कोई व्यक्ति हानि गलती या जानबूझ कर करता है।

उदाहरण-

यदि किसी रोगी का इलाज करने में यदि चिकित्सक ऑपरेशन के सम्भावित खतरों को जानते हुए भी उस रोगी की शल्यचिकित्सा करता है। और इसमे गलती हो जाती है। इससे मरीज की हालत और बिगड़ जाती है। और मरीज मर जाता है तो यह अनवधानिक उपेक्षा होगी।

यदि कोई व्यक्ति अपनी कार भीड़ भरे बाजार में यह जानते हुये भी कि इससे किसी भी व्यक्ति से टक्कर हो सकती है और उसे क्षति कारित होने का खतरा हो सकता है। तो अन्धाधुन्ध गति से चलाता है तो वह अवधानिक उपेक्षा का दोषी होगा क्योंकि उसे दुर्घटना होने की सम्भावना का ज्ञान था फिर भी उसने कार तेजी से भीड़ मे चलायी।

उपेक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार उपेक्षा का एक निश्चित अर्थ के सम्बन्ध में दो परस्पर-विरोधी धारणाएँ हैं। जो कि उपेक्षा के सिद्धान्त के रूप में प्रचलित हैं। इसकी धारणा यह है कि उपेक्षा एक मानसिक स्थिति है।सामंड इसके समर्थक रहे है।

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उपेक्षा का वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त-

यह मानसिक स्थिति नहीं है बल्कि आचरण का स्तर है। और इस विचारधारा के मुख्य समर्थक सर फ्रेड्रिक पोलक हैं । जिन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि उपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ है। उनका कहना था कि सावधानी बरतने के कर्त्तव्य का भंग ‘उपेक्षा’ माना जायेगा।

उपेक्षा-सम्बन्धी व्यक्तिनिष्ठ सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार यह निष्कर्ष निकालना कि मनुष्य ने असावधानी बरती अथवा नहीं यह उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। यदि कोई जानबूझकर अपकृत्य करने वाला व्यक्ति हानिकारक परिणामों की अपेक्षा करता है। और कार्य करता है कि वांछित हानि हो जाये। परन्तु उपेक्षा में ऐसे हानिकर परिणामों की इच्छा नहीं होती तो अधिकतर वादों में अपकारी व्यक्ति असावधान रहता है। तथा परिणामों की ओर ध्यान नहीं दे पाता है।

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